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एस धम्मो सनंतनो
से ऊब गया था—इकलौता बेटा था। मां-बाप की मौजूदगी धीरे-धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां-बाप का बड़ा मोह था युवक पर, ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे। एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।
थक गया होगा, घबड़ा गया होगा। संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था, लेकिन ये मां-बाप से किसी तरह पिंड छूट जाए। और कोई उपाय नहीं दिखता था। तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की। मां-बाप तो रोने लगे, चिल्लाने-चीखने लगे। यह तो बात ही, उन्होंने कहा, मत उठाना। उनका मोह उससे भारी था।
लेकिन जितना उनका मोह, उतना ही वह भागा-भागा रहने लगा। जितने जोर से तुम किसी को मकड़ोगे, उतना ही वह तुमसे भागने लगेगा। आखिर एक रात वह चुपचाप घर से भाग गया। दूर कहीं जहां बुद्ध विहार करते थे, उसने जाकर दीक्षा भी ले ली, भिक्षु हो गया। बाप ने बड़ी खोजबीन की, सब जगह खोजा, फिर उसे याद आया कि वह भिक्षु होने की कभी-कभी बात करता था कि संन्यस्त हो जाऊंगा, तो वह बुद्ध की तलाश में गया। मिल गया बेटा वहां। बाप ने तो बहुत रोना-धोना किया, छाती पीटी, कपड़े फाड़ डाले, लोटा जमीन पर। लेकिन बेटा, जितना बाप रोया-चिल्लाया, उतना ही मजबूती से जिद्द बांध लिया कि मैं यहां से जाऊंगा नहीं।
आखिर कोई और उपाय न देखकर बाप भी भिक्ष हो गया। बेटे को छोड़ तो सकता नहीं था, तो उसने भी संन्यास ले लिया। फिर उसकी पत्नी और बेटे की मां, वह कुछ दिन तक तो राह देखी, बाप घर लौटा नहीं, तो वह उसकी तलाश में निकली। उसे भी खयाल आया कि बेटा कभी-कभी कहता था भिक्षु हो जाऊंगा,
कहीं भिक्षु न हो गया हो। वह वहां पहुंची तो वह देखकर चकित रह गयी-बेटा ही भिक्षु नहीं हो गया है, बाप भी भिक्षु हो गया है! वह बहुत रोयी-पीटी, चिल्लायी, लोटी, बड़ा शोरगुल मचाया, बड़ी भीड़ जमा कर ली। बाप तो जाने को राजी था, लेकिन वह बेटा कहे कि मैं जा नहीं सकता। आखिर कोई और उपाय न था तो मां भी दीक्षित हो गयी। वे तीनों संन्यासी हो गए।
अब यह संन्यास बड़ा अजीब हुआ। बेटे को संन्यास में कोई रस न था, घर में विरस था। बाप को तो संन्यास से कुछ लेना-देना ही नहीं था, वह बेटे का साथ नहीं छोड़ सकता था। और स्वभावतः पत्नी कहां जाए! तो वह भी संन्यस्त हो गयी थी।
वे तीनों साथ ही साथ बने रहते। वे साथ ही साथ डोलते, साथ ही साथ बैठते, साथ ही साथ भिक्षा मांगने को जाते, साथ ही साथ बैठकर गपशप मारते। उनका संन्यास और न संन्यास तो सब बराबर था। न ध्यान, न धर्म, न साधना, न कोई सिद्धि, इससे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं था। बुद्ध के वचन भी सुनने न जाते। बुद्ध को सुनने हजारों मीलों से लोग आते, वे वहीं बुद्ध के पास थे और बुद्ध के वचन
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