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________________ आदमी अकेला है । तो समाज और संन्यास, दोनों पैदा होते हैं एक ही तथ्य से । और वह तथ्य है – तनहाई, अकेलापन, एकाकीपन । अगर भुलाने की कोशिश की तो भीड़ में खो जाओगे । और अपने से दूर और दूर निकलते जाओगे। और जितने दूर निकलोगे उतनी पीड़ा बढ़ जाएगी, क्योंकि अपने से दूर जाना ही पीड़ा है। अगर संन्यास में उतरे, अपने एकांत को ध्यान बनाया; एकांत एकांत है, अकेलापन नहीं; एकांत का सौंदर्य है, एकांत में कोई पीड़ा नहीं, ऐसी तुमने व्याख्या बदली और तुम धीरे - धीरे अपने रस में डूबे, अपने होने में डूबे, तुमने अपने में मजा लिया...। दूसरे में मजा लेना समाज । मिलता कभी नहीं, लगता है मिलेगा, मिलेगाकोई आता है आ रहा है आएगा शायद खूबसूरत ये हमें भ्रम है और तनहाई कोई कभी आता नहीं। द्वार खोले तुम बैठे रहते हो, कोई कभी आता नहीं । आएगा शायद, इस आशा में आंखें थक जाती हैं, फूटी हो जाती हैं। इस आशा में जीवन चुक जाता है, मौत आ जाती है और कोई नहीं आता। और इस आशा में वह परम अवसर चूक जाता है जिसमें तुम अपने भीतर जा सकते थे । खयाल करो, अगर तुम्हें अपने साथ आनंद नहीं मिल रहा है तो किसके साथ आनंद मिल सकेगा ! अगर अपने साथ भी तुम मौज में नहीं हो सकते तो किसके साथ मौज में हो सकोगे ! और दूसरा जो तुमसे संबंध बनाने आएगा, वह भी इसीलिए संबंध बनाने आया है, कि वह भी अकेलेपन से घबड़ा रहा है। वह भी अकेले में आनंदित नहीं है, तुम भी अकेले में आनंदित नहीं हो। दो दुखी आदमी अपने-अपने से घबड़ाकर एक-दूसरे में डूबने की कोशिश कर रहे हैं, दुख दुगुना हो जाएगा । दुगुना नहीं अनेक गुना हो जाएगा - गुणनफल हो जाएगा। दो दुखी आदमी जुड़कर कैसे सुख पैदा कर सकते हैं! दो दुख मिलकर सुख बनते हैं, ऐसा तुमने कहां पढ़ा ? किस गणित में पढ़ा? तुमने गणित ही गलत पढ़ लिया है। मगर यह हमारे जीवन का गणित है, ऐसे ही हम सोचते हैं। क तुम अकेले हो तो सोचते हो, विवाह कर लो। फिर भी दुख । तो सोचते हो, एक बेटा पैदा हो जाए। फिर भी दुख । तो सोचते हो, एक बहू बेटे को मिल जाए। फिर भी दुख । सोचते हो, अब बेटे को बेटा पैदा हो जाए। ऐसे चलता है। दुख घटता नहीं, बढ़ता है। क्योंकि ये जितने लोग बढ़ते जा रहे हैं, ये सब अकेले में दुखी हैं। संन्यास का अर्थ होता है, अगर आनंद घट सकता है तो अपने में घट सकता है, और कहीं भी नहीं घटेगा । ये आज के सूत्र इस संबंध में हैं। पहला सूत्र, सूत्र के पूर्व वह कथा, जहां बुद्ध ने यह सूत्र कहा एक युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था। युवक था अभी, बहुत कच्ची उम्र का था। जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था, मां-बाप 63
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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