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एस धम्मो सनंतनो
आखिरी प्रश्नः...बहुत से प्रश्न पूछे हैं इन मित्र ने। सार में मैंने दो प्रश्न बना लिए हैं। एक तो पूछा है...
आप विश्वविद्यालय में आचार्य थे तब आनंदित और प्रतिष्ठित थे कि अब?
आनंदित तो मैं तब भी था, आनंदित अब भी हं, प्रतिष्ठित तब भी नहीं था
और अब भी नहीं हूं। प्रतिष्ठा मेरे भाग्य में नहीं। मगर आनंद मिल गया हो तो कौन फिकर करता है प्रतिष्ठा की! प्रतिष्ठा तो वही खोजते हैं, जिन्हें आनंद न मिला हो। प्रतिष्ठा का मतलब होता है कि हमें भीतर तो कुछ नहीं मिला, तो चलो बाहर के लोग ही कुछ प्रतिष्ठा दे दें, उससे ही शायद थोड़ा सा लगे कि कुछ पा लिया है। प्रतिष्ठा का अर्थ होता है, दूसरे हमें थोड़ा भर दें, हम तो खाली हैं। दूसरे कहें, आप सुंदर; दूसरे कहें, आप शुभ; दूसरे कहें, आप शिव; दूसरे कहें, आप साधु-दूसरे कह दें; हम तो भीतर खाली हैं। अगर दूसरे न कहेंगे, तो हमारे भीतर तो कुछ भी नहीं है। प्रतिष्ठा का मतलब होता है, उधार, कोई कह दे।
तो प्रतिष्ठित तो मैं तब भी नहीं था, अब भी नहीं हूं। प्रतिष्ठा मेरा भाग्य भी नहीं और प्रतिष्ठा में मुझे रस भी नहीं। जिसमें रस था वह तब भी था, अब भी है।
हां, अगर तुम पूछते हो, शायद तुम्हारा मतलब यही हो कि कुछ फर्क पड़ा कि नहीं? फर्क पड़ा है। आप महात्माओं से सत्संग तब नहीं होता था, अब करना पड़ता है! बस इतना ही फर्क पड़ा है, और तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
दूसरा पूछा है :
आपने ऐसा क्या किया जिससे कि आप भगवान हो गए?
करने से कोई भगवान थोड़े ही होता है, भगवान होना हमारा स्वभाव है। जब
तुम करना-धरना छोड़कर अपने भीतर देखते हो, पाते हो- भगवान हम हैं! इसका करने से कोई संबंध नहीं। तुम शायद सोचते होगे, कितने उपवास किए, कितनी दंड-बैठक लगायी, कितना शीर्षासन किया, कितना आसन-व्यायाम किया, कितना भजन-कीर्तन किया-तुम शायद इस तरह का कुछ पूछ रहे हो कि किया क्या, जिससे आप भगवान हो गए?
करने ही से तुम चूक रहे हो। कर-करके चूक रहे हो। क्योंकि भगवान होना हमारा होना है, इसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं, भगवान तुम हो। लाख तुम उपाय करो तो भी तुम कुछ और हो न सकोगे। हर उपाय असफल जाएगा। इसीलिए
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