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________________ आत्मबोध ही एकमात्र स्वास्थ्य तो जीवन में तुम रो रहे हो, क्योंकि हर उपाय असफल जा रहा है। कुछ भी करते हो, सफल होता नहीं। हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो तुम हो, उसे जब जानोगे तभी तृप्ति होगी। और तुम कुछ भी होने की कोशिश करते रहो, कुछ भी कभी तुम हो न पाओगे। सिर्फ समय जाएगा, जीवन व्यतीत होगा, व्यर्थ श्रम होगा, परिणाम कभी हाथ न लगेगा। तुम रेत से तेल निचोड़ रहे हो। तो तुम पूछते हो, 'आपने ऐसा क्या किया?' - तुम्हारी धारणा ऐसी है कि कुछ उलटा-सीधा करो, तो आदमी भगवान होता है। फिर तुम समझे ही नहीं। भगवान तो स्वभाव की घोषणा है। न कुछ करते-करते, न कुछ करते-करते जब तुम्हारी सारी जीवन चेतना सब तरह के संसरण से, संसार से छूट जाती है, दौड़ से छूट जाती है, भीतर रमे रह गए, ठगे खड़े रह गए, जरा भी कल्पना नहीं उठती कि यह करें, जरा भी भाव नहीं उठता कि यह हो जाएं, जरा भी दौड़ की लहर नहीं उठती कि वहां पहुंच जाएं-यहां और अभी जब तुम शांत विश्राम में पड़े रह गए—उसी घड़ी प्रगट हो जाती है बात, तुम्हारी भगवत्ता प्रगट हो जाती है। भगवान तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम्हारी झोली में पड़ा है। इसलिए यह बात तो पूछो ही मत कि क्या करके। ऐसा पूछो कि आपने क्या-क्या करना छोड़ा जिससे भगवान हो गए, तो बात अर्थ की होगी। होने की आकांक्षा छोड़ी, होने के विचार छोड़े, अंग्रेजी में जिसको कहते हैं—बिकमिंग, यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, ऐसी सारी धारणा छोड़ी। जो हूं, ठीक हूं। जो हूं, उससे राजी हूं। जो हूं, जैसा हूं, यही परम नियति है, यही मेरा स्वभाव है। इस होने में रमा, कुछ और होने की आकांक्षा न रही, उसी क्षण, उसी क्षण, तत्क्षण प्रगट हो जाती है भगवत्ता। तुम अचानक पाते हो, तुम्हारे हृदय-कमल पर भगवान विराजमान हैं। और ऐसा नहीं कि तुमसे अलग विराजमान हैं, तुम ही हो, अहं ब्रह्मास्मि। आज इतना ही। 59
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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