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एस धम्मो सनंतनो
उचित नहीं मालूम पड़ा कि पानी बिना छानकर पीया जाए, उचित नहीं मालूम पड़ा कि शाक-सब्जी के अतिरिक्त और कुछ भोजन किया जाए। उस चैतन्य दशा को तुम भी पाओ, फिर ये सारी चीजें तुम्हारे भीतर हो जाएं तो शुभ। लेकिन उलटे मत चलो।
बाहर से भीतर नहीं, भीतर से बाहर। बाहर को बदलकर भीतर को नहीं बदला जा सकता, लेकिन भीतर का केंद्र बदल जाए तो परिधि अपने आप बदल जाती है।
छठवां प्रश्नः
बुद्धत्व के अंतिम चरण में क्या मौन अनिवार्य घटना है, कृपा करके कहें।
अंतिम में तो नहीं, अंतिम से एक चरण पूर्व मौन अनिवार्य है। अंतिम में तो
फिर बोलना होगा। बुद्ध बोले, चालीस साल। हां, एक चरण पूर्व, मंदिर में प्रवेश के एक चरण पूर्व, एक सीढ़ी पहले मौन अनिवार्य है। जो मौन हुआ, वही मंदिर में प्रविष्ट होता है। ___लेकिन जो मंदिर में प्रविष्ट हो गया, उसे फिर दौड़-दौड़ गांव-गांव, नगर-नगर, हृदय-हृदय को जाकर दस्तक देनी पड़ती है कि मैं जाग गया, तुम भी जाग सकते हो। फिर उसे बोलना पड़ता, कहना पड़ता। जैसे मौन अनिवार्य है मंदिर में प्रवेश के पूर्व, वैसे ही जब मौन में उपलब्ध हो गयी आत्मा, मौन में जान लिया स्वयं को, तो अभिव्यक्ति भी अनिवार्य है।
सभी ज्ञान को पहुंचे व्यक्ति मौन को उपलब्ध होकर ही पहुंचते हैं। लेकिन सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति अभिव्यक्ति नहीं करते। इससे दुनिया की बड़ी हानि होती है। अगर सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, जो उन्होंने जाना है, उसे कहने की चेष्टा करें-यह जानते हुए भी कि कहना बहुत मुश्किल है, और कह भी दो तो समझने को कौन तैयार है, समझना और भी मुश्किल है। यह जानते हुए भी दीवालों से चर्चा करने के लिए जो बुद्धपुरुष आए, उनकी करुणा महान है। यह जानते हुए कि जो जाना है उसे कहना मुश्किल, फिर किसी तरह बांध-बूंधकर कह भी दो, सम्हाल-सम्हलकर किसी तरह कह भी दो, तो जो सुन रहा है, उसका समझना मुश्किल। फिर भी सौ से कहो तो शायद कभी कोई एक समझ लेता है, सौ बार कहो तो शायद कभी कोई एक बार समझ लेता है, इसलिए कहे जाओ।
इसलिए बुद्ध बयालीस साल तक सतत बोलते रहे। सुबह, दोपहर, सांझ। सारा बौद्ध वचनों का संकलन किया जाता है तो भरोसा नहीं आता कि एक आदमी इतना बोला होगा! लेकिन यह घटना घटी मौन से। मौन से ही यह परम मुखरता घटी।
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