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एस धम्मो सनंतनो
नयी है, मौलिक है। मौलिक कुछ हो ही नहीं सकता, चांद-सूरज के तले सब पुराना है। नया क्या होगा! सब सनातन है।
लेकिन हमेशा ऐसा होता है। जब तुमने किसी स्त्री के प्रेम में पहली दफा प्रेम का अनुभव किया, तो तुमने भी सोचा होगा, ऐसा प्रेम पहले कभी नहीं हुआ, मौलिक है। लेकिन क्या तुम सोचते हो, यह तुम सोच रहे हो? हर प्रेमी यही सोचता है। ___अगर गुलाब से भी पूछो कि उस पर जो फूल खिला है गुलाब का, तो वह भी कहेगा—ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। उसको पता भी कहां है और गुलाबों में जो फूल खिले, और गुलाबों का पता कहां है! अनंत काल में अनंत गुलाबों पर फूल खिलते रहे हैं, उसको पता क्या है!
तो पहली तो बात, मौलिक हो भी क्या सकता है! मौलिक कुछ भी नहीं हो सकता! इसीलिए तो बुद्ध कहते हैं : एस धम्मो सनंतनो, यह सनातन धर्म है। बुद्ध कहते हैं, यह मैं कह रहा हूं, ऐसा मत सोचना; सदा से कहा गया है, यही कहा गया है, और सदा यही कहा जाएगा। यह सनातन है।
मैं माध्यम हं मौलिक विचार नहीं खिले हुए फूल ही नए वृंदों पर दुबारा खिलते हैं आकाश पूरी तरह छाना जा चुका है जो कुछ जानने योग्य था पहले ही जाना जा चुका है जिन प्रश्नों के उत्तर पहले नहीं मिले उनका मिलना आज भी मुहाल है चिंतकों का यह हाल है कि वे पुराने प्रश्नों को नए ढंग से सजाते हैं
और उन्हें ही उत्तर समझकर भीतर से फूल जाते हैं मगर यह उत्तर नहीं प्रश्नों का हाहाकार है जो सत्य पहले अगोचर था,
वह आज भी तर्कों के पार है तो विचार तो मौलिक होते ही नहीं, हो ही नहीं सकते। मौलिक होने का उपाय ही नहीं है, क्योंकि जो विचार की तर्कसरणी है, वह भी उधार है। जो शब्द हैं, भाषा है, वह भी उधार है। विचार तो मौलिक नहीं हो सकते। फिर मौलिक क्या हो सकता
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