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________________ एस धम्मो सनंतनो नहीं रहे, वहीं आनंद है। अब यह थोड़ा कठिन हो जाता है। हो ही जाएगा, उतनी ऊंचाई पर जब बातें पहुंचती हैं तो कठिन हो जाती हैं। तर्कातीत हो जाती हैं। बुद्धि की पकड़ में नहीं आतीं। बुद्धि के हाथ से फिसल-फिसल जाती हैं। ये चारों शब्द अलग-अलग हैं, लेकिन मैंने कहा, व्यावहारिक अर्थों में। पारमार्थिक अर्थों में अलग-अलग नहीं हैं। चाहे कोई साल्वेशन के मार्ग से जाए, चाहे कोई बैकुंठ के मार्ग से जाए, चाहे कोई मोक्ष के, चाहे कोई निर्वाण के, अंततः निर्वाण में ही पहुंच जाएगा। क्योंकि जो आखिर तक नहीं ले जाते, उनके आगे तुम्हें मंजिल बनी रहेगी, तुम्हें लगेगा, अभी मंजिल बाकी है, थोड़ा और चलना जरूरी है। निर्वाण के आगे कुछ शेष नहीं रह जाता। शून्य के आगे क्या शेष है? इसलिए ध्यान में तो निर्वाण रखना, हां, चलने की तो अपनी-अपनी मजबूरी है। अगर तुम्हें निर्वाण अभी पकड़ में ही न आता हो तो साल्वेशन से चलो, कोई हर्जा नहीं। वहीं से सोचो। कुछ तो किया। संसार से थोड़े तो हटे। एक कदम सही, थोड़ा धर्म का विचार तो जन्मा, थोड़ी धर्म की लहर तो उठी। चलो, वहीं से सही। यही सोचकर चलों कि क्राइस्ट मुक्ति देंगे, चलो, मुक्ति का भाव तो उठा। मुक्त होना चाहिए, यह प्यास तो उठी। फिर यह प्यास धीरे-धीरे बढ़ेगी, तो तुम्हें लगेगा कि साल्वेशन की धारणा काम नहीं करती। तब शायद बैकुंठ की धारणा तुम्हारे पकड़ में आ जाए। तो फिर बैकुंठ की धारणा से चलना। एक दिन तुम्हें यह समझ में आएगा कि बैकुंठ भी ठीक, लेकिन यह भी संसार का ही विस्तार मालूम होता है; थोड़ा सूक्ष्म, लेकिन है संसार का ही विस्तार। वही सुख, थोड़ी बड़ी मात्रा में। वही स्त्रियां, थोड़ी ज्यादा सुंदर। वही वासनाएं, लेकिन कल्पवृक्ष के कारण पूरी होने लगीं अब। पहले मेहनत करके पूरी होती थीं, अब मुफ्त में पूरी होने लगीं, लेकिन बात वही की वही है। तो फिर तुम सोचोगे मोक्ष की बात कि अब तो सब छोड़कर ध्यान में डूब जाएं। फिर एक घड़ी आएगी जब तुम पाओगे-जब ध्यान के आखिरी शिखर पर पहुंचोगे तब तुम पाओगे-सब तो गया, यह मैं का जो भाव बच गया, यही कांटे की तरह चुभ रहा है अब। उस दिन तुम यह कांटा भी छोड़ दोगे और निर्वाण घटित हो जाएगा। इसलिए तुम जहां हो वहीं से चल पड़ो, कोई चिंता नहीं। पहंचना तो निर्वाण है। निर्वाण तक नहीं पहुंचे तो पहुंचे ही नहीं। तो ध्यान में तो निर्वाण रखना, लेकिन अगर वह मंजिल बहुत दूर की मालूम पड़े और उतने दूर का शिखर तुम्हें दिखायी ही न पड़े, तो फिर जो तुम्हें दिखायी पड़े अभी उसको व्यावहारिक लक्ष्य बना लेना। जो पास की पहाड़ी हो उस पर चढ़ना शुरू कर देना। लेकिन खयाल में रहे कि एक दिन गौरीशंकर पर चढ़ना है, उससे कम में राजी नहीं होना है। 42
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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