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आत्मबोध ही एकमात्र स्वास्थ्य
हैं, अगर परमात्मा बचा और मैं न बचा, तो दो तो न रहे, एक रहा। अगर मैं बचा, परमात्मा न बचा, तो भी दो न रहे, एक रहा। लेकिन जब तक एक है तब तक दूसरा भी किसी न किसी भांति मौजूद रहेगा। क्योंकि एक का कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। जब दो खो गए, तो एक भी खो जाना चाहिए; एक का क्या अर्थ है!
अगर हम कहते हैं-एक, तो तत्क्षण दो का खयाल आता है। एक कहते ही दो का खयाल आता है। क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि कोई एक कहे और तुम्हें दो का खयाल न आए? इसीलिए तो वेदांतियों ने एक अनूठा ढंग खोजा-वे ऐसा नहीं कहते कि परमात्मा एक है, वे कहते हैं, परमात्मा अद्वैत है, दो नहीं। सीधी बात को कि एक है, सीधा नहीं कहते, क्योंकि एक कहने से तो दो का खयाल आता है, तत्क्षण खयाल आता है। एक का तो कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। सोचो, अगर एक ही है, तो उसको एक भी कैसे कहोगे! दो होने चाहिए तो ही एक में कोई अर्थ हो सकता है।
तो हिंदू कहते हैं, दो नहीं है। लेकिन बौद्ध कहते हैं, चाहे तुम एक कहो, चाहे तुम दो नहीं कहो, ये कितनी ही चालाक तरकीबें निकालो, कितनी ही होशियारी करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर एक है, तो दो बचते हैं। अगर तुम कहो दो नहीं, तो भी एक की ही धारणा रह जाती। और उस निराकार दशा में न एक है, न दो है—वह संख्यातीत, संख्या के बाहर।
तो संख्यातीत तो एक ही चीज है, शून्य। शून्य मात्र संख्या के बाहर है। शून्य एक है कि दो, कि तीन, कि चार, कि पांच? शून्य तो सिर्फ शून्य है। न एक, न दो, न चार, न पांच। इसलिए शून्य के जो अर्थ लगाने हों लग जाते हैं। एक पर रख दो शन्य तो नौ के बराबर हो जाता है। दो पर रख दो शून्य तो अठारह के बराबर हो जाता है। तीन पर रख दो शून्य, सत्ताईस के बराबर हो गया! शून्य में कुछ है ही नहीं, शून्य तो बस शून्य है; शून्य तो दर्पण जैसा है—जो सामने ले आओ, उसी को झलका देता है। लाल रंग आया, दर्पण लाल हो गया। पीला रंग आत्या, दर्पण पीला हो गया। आदमी दिखा, दर्पण में आदमी दिखने लगा। आदमी गया, कोई न रहा, दर्पण खाली हो गया। शून्य तो दर्पण है। ___ तो बुद्ध ने निर्वाण शब्द चुना। बुद्ध के एक-एक शब्द बहुमूल्य हैं। उन्होंने जो श्रेष्ठतम हो सकता है, अंतिम हो सकता है, उस पर जैसी उनकी पकड़ है वैसी किसी की भी पकड़ नहीं है।
- तो निर्वाण आखिरी धारणा है। कोई नहीं बचता। इससे तुम डरोगे भी। इसीलिए निर्वाण से बहुत लोग प्रभावित नहीं होते-कोई नहीं बचता! तो फिर सार क्या? तुम बचना तो चाहते हो। तुम यह चाहते हो कि आनंद तो हो, जरूर हो, लेकिन मैं भी तो रहं, नहीं तो फिर आनंद होने का भी क्या सार है! और बुद्ध कहते हैं, तुम जब तक हो तब तक दुख रहेगा। तुम दुख। यह मैं की धारणा ही दुख है। जहां तुम
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