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आत्मबोध ही एकमात्र स्वास्थ्य
जा सकता। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि सुख नहीं है। संसार में सुख नहीं है, इसका यह अर्थ नहीं कि सुख नहीं है। सुख है, संसार में सुख नहीं है। सुगंध है। कंकड़-पत्थरों में सुगंध नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि सुगंध नहीं है। कंकड़-पत्थरों को नाक से लगाए बैठे रहोगे तो सुगंध न मिलेगी। सुगंध है, लेकिन फूलों को, कमल को, गुलाब को, कंकड़-पत्थरों को नहीं। कंकड़-पत्थर गंधशून्य हैं। सुगंध है, तुममें। कस्तूरी कुंडल बसै। वह तुम्हारे भीतर ही बसी है। जिसको खोजते तुम द्वार-द्वार, दरवाजे-दरवाजे भटक रहे हो, वह तुम्हारे भीतर बसी है। उसे तुम लेकर आए हो। वह तुम हो। तत्वमसि।
सुख तो है। अगर सुख हो ही न तो जीवन बिलकुल ही अकारथ हो गया, तो जीवन बिलकुल असार हो गया। फिर धर्म का क्या अर्थ, फिर धर्म का क्या सार? धर्म का इतना ही सार है-जहां सुख नहीं है वहां से तुम्हें उस तरफ मोड़ दे जहां सुख है। धर्म सुख की खोज है। धर्म जहां-जहां दुख है, वहां-वहां तुम्हें जगा देता;
और जहां सुख है, वहां तुम्हें डुबकी लगवा देता। . और ये जो संसार के दुख हैं, ये भी तुम्हारे विरोधी नहीं हैं, ये भी सहयोगी हैं, क्योंकि इन्हीं से गुजर-गुजरकर तो अनुभव पकेगा। बार-बार चोट खा-खाकर दूसरे से, दुख पा-पाकर तो तुम जगोगे और अपने में आओगे। टकरा-टकराकर, हर बार रो-रोकर तो एक दिन तुम्हारी आंखें बंद होंगी।
जीवन दर्द का झरना है जो भी जीते हैं दर्द भोगते हैं
और दर्द भोगते-भोगते ही हमें मरना है दर्द नियति की दुकान की निहाई है दर्द भगवान के हाथ का हथौड़ा है देवता हम पर चोटें देकर हमें संवारता और गढ़ता है शायद यह बात सच है कि आदमी दर्द में विकसित होता
खूबसूरत बनता और बढ़ता है तो दर्द एकदम व्यर्थ नहीं हैं, दुख एकदम व्यर्थ नहीं हैं। दुख है बाहर, लेकिन वही चोट निहाई बनती, हथौड़ा बन जाती, वही चोट छेनी बन जाती, वही चोट तुम्हारे भीतर से जो-जो व्यर्थ है उसे काट देती, जला देती है, वही चोट तुम्हें जगाती है।
देवता हम पर चोटें देकर हमें संवारता और गढ़ता है दर्द नियति के दुकान की निहाई है
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