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________________ एस धम्मो सनंतनो सुख किसी से मिलेगा, इस भ्रांति का नाम संसार है। सुख अपना स्वभाव है, इस जागृति का नाम मोक्ष है। सुख के लिए कोई परिस्थिति चाहिए, कोई शर्त पूरी करनी पड़ेगी, इस आपाधापी का नाम संसार है। सुख है ही, तुम जैसे हो वैसे होने में सुख है। सुख से तुम कभी च्युत ही नहीं हुए, सुख से ही तुम निर्मित हो। सुख को मांगने में भूल है, सुख को भोगने में सुख है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, अहो, देखो हम कैसे सुखी! वैरियों के बीच अवैरी होकर विहरते हैं। आकांक्षियों के बीच निराकांक्षी होकर विहरते हैं। भिखारियों के बीच सम्राट होकर विहरते हैं। सुसुखं वत! यह हमारा सुखी स्वभाव तो देखो। यह हमारा महासुख देखो। ___संसार में सुख नहीं है, सुख स्वयं में है। लेकिन संसार का मतलब ही यह होता है, जो स्वयं से चूक गया और दूसरे पर जिसकी नजर अटक गयी। तुम संसार शब्द का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझते। तुम समझते हो संसार का मतलब, ये वृक्ष, ये पहाड़, ये चांद-तारे, ये बाजार, ये दुकान, यह संसार है। तुम संसार का अर्थ नहीं समझते। तुम शाब्दिक अर्थ समझते हो। तुम उसका मनोवैज्ञानिक अर्थ नहीं समझते। संसार का अर्थ है, किसी दूसरे में सुख, किसी और में सुख, कहीं और सुख। इस तरह की जो अज्ञान-दशा है, उसका नाम संसार है। और इस अज्ञान-दशा में जो चलता जाता, चलता जाता–संसरण करता है जो—वह संसार में जी रहा है। इस अज्ञान-दशा में संसरण करता है जो, चलता जाता है, चलता.जाता है, चलेता जाता है; इधर नहीं मिला उधर मिलेगा, वहां पहुंच जाता है, वहां भी नहीं मिलता, और आगे मिलेगा, ऐसी संसरण करने की प्रक्रिया का नाम संसार है। जिस दिन तुम यह जागकर समझ लोगे-कहीं नहीं मिलता, न यहां मिलता, न वहां मिलता, कितने ही बढ़ते जाओ, कहीं नहीं मिलता; सारी आशाएं क्षितिज की भांति सिद्ध होती हैं, जमीन और आकाश कहीं मिलते नहीं, मिलते प्रतीत होते हैं, जब ऐसा तुम्हें बोध होगा और तुम जागकर खड़े हो जाओगे-जागकर-तुम्हारा होश का दीया जलेगा, आंखें दूसरे से हट जाएंगी अपने पर पड़ेंगी, तुम्हारी ज्योति तुम्हें ज्योतिर्मय करेगी, उसी क्षण सुख है। और वह क्षण संसार के बाहर है, क्योंकि संसरण रुक गया। वह जो दौड़ थी-दौड़ यानी संसार-वह रुक गयी। अब तुम अपने में डूब गए, तुमने अपने में डुबकी ले ली, तुम स्रोतापन्न हो गए, तुम्हें स्रोतापन्न होने का पहला फल मिला, तुम अपनी जीवनधारा में उतर गए। अब तुम भिखारी नहीं हो, अब तुम सम्राट हो गए, अब तुम कह सकते हो-अहो, देखो, सुसुखं वत! हमारा सुख देखो! पूछते हो, “संसार में दख ही दुख है?' दुख का नाम संसार है। इसलिए ऐसा प्रश्न पूछ ही नहीं सकते तुम। पूछा नहीं 34
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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