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आत्मबोध ही एकमात्र स्वास्थ्य
पहला प्रश्न:
संसार में दुख ही दुख है या कुछ सुख भी?
सं सा र . पर्यायवाची है दुख का। यह प्रश्न ऐसा ही है जैसे कोई पूछे, दुख में
दुख ही दुख है, या कुछ सुख भी है ? सुख की आशा है। लेकिन सुख कभी घटता नहीं। आशा दुराशा सिद्ध होती है। सुख घटेगा, ऐसा संसार आश्वासन देता है। लेकिन आश्वासन यहां कभी पूरे होते नहीं। एक आश्वासन टूटता है तो संसार दस और देता है। आश्वासन देने में संसार कृपण नहीं है। खूब दिल खोलकर आश्वासन देता है। तुम जितना मांगो, उससे हजारगुना देने की तैयारी दिखलाता है। लेकिन देता कुछ भी नहीं। जीवन ले लेता है तुमसे इन्हीं आश्वासनों के सहारे। इन्हीं आशाओं के सहारे तुम्हें दौड़ा लेता है खूब, थककर गिर जाते हो कब्र में। कब्र में गिरते-गिरते तक भी तुम्हारे आश्वासन पर भरोसे टूटते नहीं। तब तुम सोचते हो कब्र में गिरते-गिरते-बैकुंठ है, स्वर्ग है, वहां मिलेगा सुख। वह भी संसार का ही धोखा है।
सुख कहीं मिलेगा, इस भ्रांति का नाम संसार है। सुख अभी है, यहीं है, इस बोध का नाम निर्वाण है।
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