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________________ उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है 'एकांत का रस पीकर...।' पविवेकं रसं पीत्वा। और बुद्ध उसको रस कह रहे हैं। प्यारा शब्द उपयोग कर रहे हैं। क्योंकि जिसने एकांत का रस पी लिया, उसने अमृत पी लिया। जिसे तुम संबंध में खोज रहे हो और कभी संबंध में पा न सकोगे, वह एकांत में पाया जाता है। वह अपने ही स्वभाव में छिपा पड़ा है। वह झरना तुम्हारा है। वह तुम्हारी ही गहराइयों में दबा पड़ा है। 'एकांत का रस पीकर तथा शांति का रस पीकर मनुष्य निडर होता है।' ___ अब तुम भयभीत हो रहे हो, बुद्ध ने कहा, रो रहे हो, चीख रहे हो। मेरे जाने के कारण तुम भयभीत हो रहे हो। क्योंकि तुमने मुझसे तो संबंध बनाया, अपने से संबंध नहीं बनाया। मैं जा रहा हूं तो तुम रो रहे हो। पत्नी जाएगी तो पति रोएगा। पति जाएगा तो पत्नी रोएगी, बेटा जाएगा तो बाप रोएगा, बाप जाएगा तो बेटा रोएगा। जिन्होंने दूसरों से संबंध बनाने में ही सारी ऊर्जा नियोजित की है, वे रोते ही रोते जीवन गंवाएंगे। अपने से संबंध जोड़ो। - 'शांति का रस पीकर...।' - रसं उपसमस्स च। उस एकांत का, मौन का, शब्द शून्यता में डूबकर अपना रस पीओ, अपने को चखो। तो फिर निडर हो जाओगे। फिर कोई भय नहीं है, बुद्ध रहें कि जाएं! कौन कहां आता-जाता है! सब जहां हैं, वहीं हैं। न कोई आता, न कोई जाता, सिर्फ हमारे संबंध टूटते और बनते। तुम अगर असंग हो जाओ, तो फिर कोई जीवन में पीड़ा नहीं, दुख नहीं। 'धर्म का प्रेमरस पीकर निष्पाप हो जाओ।' धर्म कहां है? धर्म का अर्थ होता है, स्वभाव। धर्म का अर्थ होता है, तम्हारी नियति। तुम जो वस्तुतः हो, वही धर्म। 'इसलिए : जैसे चंद्रमा नक्षत्र-पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही धीर, प्राज्ञ, बहुश्रुत, शीलवान, व्रतसंपन्न, आर्य तथा बुद्धिमान पुरुष का अनुगमन करना चाहिए।' ____ तो बुद्ध ने कहा, इस तिष्य को देखो, यह धीर है, प्राज्ञ है, बहुश्रुत है, शीलवान है, व्रतसंपन्न है, आर्य है, बुद्धिमान है, इसका अनुगमन करो। रोओ-धोओ मत। तस्माहि. धीरञ्च पञ्चञ्च बहुस्सुतं च धोरय्हसीलं वतवंतमरियं । 27
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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