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________________ एस धम्मो सनंतनो अपना प्राणपण लगा रहा हूं, आपका आशीर्वाद चाहिए। अब न बोलूंगा, न हिलूंगा, न डोलूंगा, क्योंकि सारी शक्ति इसी पर लगा देनी है चार माह ! ज्यादा समय भी पास में नहीं। और आपने कहा, भिक्षुओ, सावधान हो जाओ और जो करने योग्य है, करो! तो यही मुझे करने योग्य लगा कि ये चार महीने जीवन की क्रांति के लिए लगा दूं — पूरा लगा दूं। इस पार या उस पार । लेकिन यह कहने को न रह जाए कि मैंने कुछ उठा रखा था। कि मैंने कुछ छोड़ दिया था, किया नहीं था । - बुद्ध ने तिष्य भिक्षु को आशीर्वाद दिया और भिक्षुओं से कहा, भिक्षुओ, जो मुझ पर स्नेह रखता है, उसे तिष्य के समान ही होना चाहिए। यही तो है जो मैंने कहा था कि करो, जो करने योग्य है करो, सावधान, मैं चार माह के बाद परिनिवृत्त हो जाऊंगा। रोने-धोने से क्या होगा ! रो-धोकर तो जिंदगियां बिता दीं तुमने । चर्चा करने से क्या होगा! झुंडु के झुंड बनाकर विचार करने से और विषाद करने से क्या होगा ! तुम मुझे तो न रोक पाओगे । मेरा जाना निश्चित है। रो-रोकर तुम यह क्षण भी गंवा दोगे। आंसू नहीं काम आएंगे। नौका बना लो। तिष्यस्थविर ने ठीक ही किया है। इसने मौन की नौका बना ली। इसी मौन की नौका से कोई तिरता है। इसीलिए तो हम साधु को मुनि कहते हैं। मुनि का अर्थ होता है, जिसने मौन की नौका बना ली। तिष्यस्थविर मुनि हो गया है। गंध-माला आदि से पूजा करने वाले मेरी पूजा नहीं करते। वह वास्तविक पूजा नहीं है । जो ध्यान के फूल मेरे चरणों में आकर चढ़ाता है, वही मेरी पूजा करता है। ऐसा बुद्ध ने कहा । धर्म के अनुसार आचरण करने वाला ही मेरी पूजा करता है, ऐसा बुद्ध ने कहा । ध्यान ही मेरे प्रति प्रेम की कसौटी है । रोओ मत, ध्याओ । रोओ नहीं, ध्याओ । और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं पविवेकं रसं पीत्वा रसं उपसमस्स च । निद्दरो होति निष्पापो धम्मपीतिरसं पिवं ।। 'एकांत का रस पीकर तथा शांति का रस पीकर मनुष्य निडर होता है और धर्म का प्रेमरस पीकर निष्पाप होता है । ' तो, एकांत का रस पीकर - एकांत का अर्थ होता है, अपने भीतर डुबकी लो । बाहर बहुत संबंध जोड़े, दूसरे से बहुत नाते बनाए, दुख के अतिरिक्त क्या कब पाया? अब अपने से नाता जोड़ो। एक नया सेतु बनाओ - अपने और अपने बीच । अब अपने में जाओ। एकांत का अर्थ नहीं होता है, हिमालय चले जाओ। एकांत का अर्थ होता है, जो संबंधों में बहुत ज्यादा जीवन ऊर्जा लगायी है, उसे संबंधों से मुक्त करो। अपने साथ रमो । आत्मलीन बनो । 26
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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