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________________ ध्यान की खेती संतोष की भूमि में सुदस्सं वज्जमञ्ञेसं अत्तनोपन दुदृशं । पर अपना दोष देखना बड़ा कठिन, आनंद । तू यह तो देख रहा है कि ये कोई नहीं सुन रहे हैं, लेकिन तूने सुना? और जब बुद्ध की मृत्यु हुई तो आनंद छाती पीट-पीटकर रोया। क्योंकि उसने सुना ही नहीं । उसने भी जिंदगी ऐसे ही बिता दी, कौन सुन रहा है कि नहीं सुन रहा है, इसकी फिकर में बिता दी। 'वह मनुष्य दूसरों के दोषों को भूसे की भांति उड़ाता फिरता है, लेकिन अपने दोषों को वैसे ही छिपाता है जैसे जुआरी हार के पासे को छिपाता है।' बुद्ध ने कहा, मनुष्य ऐसा है । दूसरों के दोषों को तो उड़ाता है भूसे की भांति कि सबकी आंखों में पड़ जाए और सबको दिखायी पड़ जाए, और अपने दोषों को ऐसे छिपाता है जैसे जुआरी हार के पासे को छिपाता है। 'दूसरों का दोष देखने वाले तथा दूसरों की टीका-टिप्पणी करने वाले के आस्रव बढ़ते हैं, आनंद ! उससे उसके बंधन बढ़ते हैं, कटते नहीं । वह आस्रवों के विनाश से दूर ही रहता है।' 'उसके आस्रव विनष्ट नहीं होते। उसके बंधन के मूल कारण टूटते नहीं । उसका संसार चलता रहता है, आनंद । तो ठीक, ये नहीं सुन रहे हैं, यह तो ठीक, मगर तू मत इस फ़िकर में पड़ । तू सुन ! यह यहां तुमसे भी मैं यह कहना चाहूंगा, जब मैं कह रहा था कि कोई यहां जम्हाई लेता कभी, कोई झपकी खा जाता, कोई इधर-उधर देखता, तो तुम जल्दी से सोचने मत लगना कि मैं किसके संबंध में बात कर रहा हूं। तुम जल्दी से दूसरों की तरफ मत देखने लगना कि पड़ोस में कोई जम्हाई ले रहा हो, तुम कहो कि देखो, बेचारा ! दूसरों के दोष देखने बहुत आसान । उसको लेने दो जम्हाई, वह उसकी मर्जी! अगर उसने जम्हाई ही लेने का तय किया है तो हम कौन बाधा देने वाले ! ले, चलो यही क्या कम है कि उसने ऐसी जगह आकर जम्हाई ली । वेश्याघर में बैठकर भी ले सकता था। यहां कुछ होने की संभावना तो है ही। कहीं न कहीं से चोट शायद कभी पड़ जाए, जम्हाई लेते-लेते ही शायद कोई चीज भीतर सरक जाए - शायद मुंह खुला हो जम्हाई में और कुछ गटक जाए। झपकी खा रहा हो, झपकी में ही कोई चीज सरक जाए। चलो, ठीक जगह आकर जम्हाई ली। ठीक जगह आकर झपकी खायी। 1 मुझसे कभी पूछता कोई — उसको नींद आ जाती है सदा - वह कहता है, बड़ी हैरानी की बात है, बस आपको सुना कि नींद आयी! ऐसे चाहे रातभर नींद न आए, बस आपको सुना कि नींद आयी। आप क्या मंत्र कर देते हैं! तो मैं कहता हूं, चलो, कोई बात नहीं; यहां आकर सोओ, यह भी ठीक। शायद नींद में ही मेरी बात कभी उतर जाए, कोई सपना बन जाए। शायद नींद भी कभी द्वार बन जाए। चलो, कोई 351
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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