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________________ ध्यान की खेती संतोष की भूमि में छिछली हैं। जब तुम्हारे अनुकूल हो तुम्हारा गुरु तो भगवान, जब तुम्हारे प्रतिकूल पड़ जाए तो फिर कैसा भगवान! इधर मुझे रोज ऐसे मौके आते हैं। अगर मैं जो कहूं वह तुम्हारे अनुकूल पड़ता हो, तुम बड़े खुश! तुम मुझसे खुश नहीं, तुम इस बात से खुश कि तुम्हारे अहंकार के अनुकूल पड़ गयी कोई बात। और निरंतर मुझे ऐसी बातें कहनी पड़ेंगी जो तुम्हारे अहंकार के अनुकूल नहीं पड़ सकती हैं, नहीं पड़नी चाहिए। वह तो भूल-चूक से कोई बात तुम्हारे अहंकार के अनुकूल पड़ जाती है। संयोग की बात समझना। वह प्रयोजन नहीं था। यहां इतने लोग बैठे हैं, तो किसी के अनुकूल पड़ जाती है। मगर प्रयोजन तो यही कि तुम्हारा अहंकार सब तरह से भस्मीभूत हो जाए। धूल-धूसरित हो जाए, खंडित हो जाए, ऐसा गिरे कि फिर कभी उठ न सके। निष्प्राण हो जाए। तो जब भी तुम्हें चोट लगती है तो नाराज हो जाते हो। तुम्हारी नाराजगी में फिर कौन गुरु! फिर कोई गुरु नहीं। __ उस दिन उसने भगवान को भगवान भी नहीं कहा। मनुष्य की श्रद्धाएं कितनी छिछली हैं! इस पृष्ठभूमि में बुद्ध ने ये गाथाएं कहीं''लोग अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार देते हैं।' बुद्ध ने कहा, तुझे देना ही चाहिए किसी को, ऐसा नहीं है। उनकी जितनी श्रद्धा, उनकी जितनी भक्ति, उस हिसाब से देते हैं। उनके पास कितना है, उस हिसाब से देना चाहिए, यह भी सवाल नहीं है। तू कौन है इस तरह के सवाल उठाने वाला! किसी के पास करोड़ हैं और एक पैसा देता है, तो तू यह नहीं कह सकता कि यह कृपण है, क्योंकि करोड़ों रुपए हैं और एक पैसा देता है। एक पैसा दिया, इतना भी क्या कम है! इसके लिए भी अनुगृहीत होना चाहिए कि उसने एक पैसा भी दिया। न देता, तो कोई कानूनी अधिकार थोड़े ही है उसके ऊपर। एक पैसा भी दिया तो बहुत है। बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है। वह एक द्वार पर भिक्षा मांग रहे हैं और उस द्वार का दरवाजा खुला और गृहिणी ने कहा, आगे हटो! तो वह आगे हट गए। पास का एक पड़ोसी ब्राह्मण यह देख रहा है। दूसरे दिन फिर उसी द्वार पर उन्होंने भिक्षा मांगी, और वह स्त्री अब तो बहुत ही गुस्से में आ गयी। वह कचरा साफ करके कचरा फेंकने जा रही थी, उसने सारा कचरा बुद्ध पर फेंक दिया और कहा कि तुझे कुछ बुद्धि नहीं है! समझ नहीं है! कल मैंने भगाया, फिर आ गया, अब यह ले! बुद्ध आगे बढ़ गए। अब उस ब्राह्मण को भी दया आयी इस पर। ऐसे दया कारण नहीं थी, आनी नहीं थी, क्योंकि ब्राह्मण तो बुद्ध पर बहुत नाराज थे। मगर उसे दया आयी कि 343
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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