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ध्यान की खेती संतोष की भूमि में
गैर-संन्यासियों को नमस्कार करे, मुनि! मुनि सिर्फ आशीर्वाद दे सकता है, नमस्कार नहीं कर सकता। यह तो हद्द हो गयी! और उनसे जिनसे कि निर-अहंकार की बात करते हैं, ये हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकते। इन्हें दूसरे में सिर्फ गृहस्थ दिखायी पड़ रहा है, दूसरे में छिपा परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता। ये सब अहंकार के ही नए-नए रूप हैं, नए-नए ढंग हैं।
तो संन्यस्त हो गया युवक-कथा बड़ी मीठी है, कहती है कि शायद इसीलिए संन्यस्त हुआ कि यह अहंकार में एक और नया पंख लग जाएगा, एक नया रंग लग जाएगा। ___ एक बार कुछ भिक्षु उसके गांव गए तो पाया कि वह व्यर्थ ही दूसरों की निंदा करता है, और व्यर्थ ही अपने कुल की प्रशंसा करता है। उसके कुल में तो कुछ था ही नहीं, कुछ खास बात ही न थी। वे तो साधारण लोग थे, साधारण से भी गए-बीते लोग थे। बड़े हीनकुल से वह आया था। बड़ी हीनवृत्तियों वाले कुल से आया था।
भिक्षुओं ने यह बात भगवान से कही।
पच्चीस सौ साल पहले बुद्ध ने जो वक्तव्य दिया, उस पर फ्रायड और जुंग को ईर्ष्या हो! एडलर परेशान होता अगर इस वक्तव्य का उसे पता चल जाता। क्योंकि एडलर ने अभी जो मनोविज्ञान विकसित किया है, उसका मौलिक आधार इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स है, हीनता की ग्रंथि। वह कहता है, जो लोग जितने ही हीन होते हैं, उतने ही श्रेष्ठ होने का दावा करते हैं। ___ काश, उसे बुद्ध की यह कथा पता होती, तो उसे यह खयाल पैदा नहीं होता कि उसने कोई अनूठी बात खोज ली है। तुम अगर पुराने शास्त्रों में गहरे उतरो तो तुम चकित हो जाओगे, शायद कोई अनूठी बात खोजने को बची नहीं है। होना भी ऐसा ही चाहिए। कितने अनंत काल से आदमी सोचता रहा है! सब पहलू देख लिए गए हैं, सब पर्ते उलट ली गयी हैं, सब द्वार खोल लिए गए हैं।
मगर वहां भी अहंकार का एक खेल चलता है। हर युग कहता है कि जो हमने खोजा, वह किसी ने नहीं खोजा। और हर आदमी कहता है कि जो मैं जानता हूं, वह कोई नहीं जानता। मैं मौलिक हं। यह सदियों से आदमी सोचता रहा है। हजारों वर्षों से आदमी चिंतन करता रहा है। बड़े-बड़े मनीषी हुए। बचा कैसे होगा कुछ तुम्हारे लिए मौलिक होने को! __जैसे कृष्णमूर्ति के अनुयायी कहते हैं कि कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, मौलिक है। तो उन्होंने अष्टावक्र नहीं पढ़ा। नहीं तो वे बड़े हैरान हो जाएंगे। कृष्णमूर्ति का एक भी वक्तव्य नहीं है जो अष्टावक्र के वक्तव्य से आगे जाता हो। खैर, कृष्णमूर्ति तो शास्त्र पढ़ते नहीं, उनकी जिद्द है कि वे पुराने शास्त्र पढ़ेंगे नहीं, चलो, उनको क्षमा किया जा सकता है। मगर उनके शिष्य, जो दावा करते हैं, उनको तो कम से कम इधर-उधर देखना चाहिए इसके पहले कि मौलिक होने का दावा हो।
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