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एस धम्मो सनंतनो
देखा कि उसकी कार में किसी ने आग लगा दी। वह बहुत हैरान हुआ कि किसने यह किया है! जब पास गया तो पता चला वहां एक तख्ती लगी है, उस पर लिखा है कि जेरी रूबिन, अब तुम तीस साल के ऊपर के हो गए, अब हमारे नेता नहीं रहे। जिनका उसने आंदोलन खड़ा किया था, वे ही उसके विरोध में हो गए, क्योंकि वह तीस साल के ऊपर हो गया। तब उसको पता चला—अभी मैं उसकी किताब पढ़ रहा था, उसने लिखा है कि तब मुझे पता चला कि तीस साल के ऊपर एक दिन मुझे भी होना पड़ेगा, तब मैं ही झंझट में पडूंगा।
पश्चिम में युवक किताबें लिख रहे हैं, तो बूढ़ों का सम्मान नहीं। पूरब में बूढ़ों ने किताबें लिखीं तो युवकों का सम्मान नहीं। किसी दिन अगर बच्चे किताबें लिखेंगे तो जवानों का भी सम्मान नहीं रह जाएगा। पुरुषों ने किताबें लिखीं तो स्त्रियों का अपमान। स्त्रियां,किताबें लिखती हैं तो पुरुषों का अपमान। आदमी किस-किस भांति अपने अहंकार की पूजा किए चला जाता है। ___ हम जो हैं, हम प्रकारांतर से उसकी प्रशंसा करते हैं। इससे जागना। ये अहंकार के सूक्ष्म सहारे हैं। मत भूलकर कहना कि तुम हिंदू हो तो बड़ा कोई पुण्य हो गया। मत भूलकर कहना कि तुम ईसाई हो तो कोई बड़ा पुण्य हो गया। पुण्य तो उस दिन होगा, जिस दिन तुम न-कुछ हो जाओगे। उसके पहले कोई पुण्य नहीं हैं। न तुम्हारा कोई देश रहेगा, न कोई जाति रहेगी, न कोई कुल रहेगा, न स्त्री-पुरुष का भाव रहेगा, पुण्य तो उस दिन होगा। धन्यता तो उस दिन होगी, जिस दिन तुम्हारे ऊपर कोई रोग न रह जाएंगे, कोई तादात्म्य न रह जाएगा; तुम यह कह ही न सकोगे कि मैं हिंदू, कि मुसलमान, कि ईसाई, कि जैन, तभी तुम धन्य होओगे। उसके पहले तो धन्यता झूठी है। ___वह युवक शायद इसीलिए संन्यस्त भी हुआ था, ताकि वह कह सके कि देखो मैं संन्यस्त हूं! सारा जगत पापी है। संन्यास का मजा ही यही है। उससे तुम्हें बड़ी सुगम सुविधा मिल जाती है सारी दुनिया की निंदा करने की। संन्यस्त होते से ही तुम एकदम शिखर पर विराजमान हो जाते हो। एक क्षण पहले सड़क पर थे, एक क्षण बाद शिखर पर विराजमान हो जाते हो।
तुम देखते हो, जब दीक्षाएं होती हैं, तो कितना शोर-शराबा, जुलूस निकलता और बड़ा उत्सव मनाया जाता कि कोई सज्जन दीक्षा ले रहे हैं। इसमें उत्सव की क्या बात है! मैं संन्यास देता हूं तो जरा भी आहट नहीं होने देता, क्योंकि आहट की क्या बात है! इसमें उत्सव की क्या बात है! उत्सव तो अहंकार की ही पूजा है। उत्सव का तो मतलब यह हुआ कि तुमने दीक्षा लेने वाले का खूब अहंकार पोषित कर दिया, अब यह अकड़कर चलेगा।
देखते हैं, जैन-मुनि हाथ जोड़कर किसी को नमस्कार नहीं करता। कर नहीं सकता, क्योंकि वह कहता है, मुनि और नमस्कार करे! गृहस्थों को, श्रावकों को,
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