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________________ शब्दों की सीमा, आंसू असीम रही; यह सब आपके आशीर्वाद से हुआ, हम यही मानते हैं। 17 जून 1976 को मेरे पचास वर्ष पूरे हुए और मैंने संन्यास लिया। इसके बाद मैंने सामाजिक व्यवहार बहुत कम कर दिया। स्वास्थ्य की बात रही, तो 19 फरवरी को मुझे ज्ञात हुआ कि मुझे हृदय-रोग है। 21 मार्च को मालूम हुआ कि संजय गांधी हार गए, जिससे उनको दिया गया बड़ा धन-पांच लाख रुपए-झंझट में पड़ गया। परसों सुबह अग्निकांड में काफी नुकसान हुआ। और इन घटनाओं को मैं अपनी संन्यास की आंखों से देखता हं-और अविचलित चित्त से देखता हूं। कष्ट तो है, पर क्या चित्त की शांति उससे अलग नहीं है? पछा है माणिक बाबू ने। तो पहली तो बात, अगर मैं तुम्हारी आंखों के सामने सदा हूं, तो यह असंभव है कि तुम मेरी आंखों के सामने सदा न होओ। सच तो यह है, तुम मुझे अपनी आंखों के सामने सदा तभी रख सकते हो, जब मैंने तुम्हें अपनी आंखों के सामने सदा रखना शुरू कर दिया हो। तुम मेरी याद तभी कर सकते हो, जब मैं तुम्हारी याद कर रहा हूं। लेकिन, बहुत बार तुम्हें ऐसा लगेगा कि शायद मैं भूल गया हूं। क्योंकि मेरे तुम्हें याद करने के अपने ढंग हैं। और वे स्थूल नहीं हैं। सच में तो स्थूल में मैं तभी तक याद तुम्हें दिलाता हूं कि मुझे तुम्हारी याद है, जब तक मैं देखता हूं अभी सूक्ष्म काम शुरू नहीं हुआ। जैसे ही सूक्ष्म काम शुरू हो जाता है, फिर स्थूल तल पर याद करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जब तुम्हारा मुझसे मिलना भीतर शुरू हो गया, तो बाहर मिलना, न मिलना गौण हो जाता है। हो ही जाना चाहिए। ___ तो माणिक बाबू के मन में यह खयाल उठना कि अभी मैं आपकी नजर के सामने नहीं हूं, परंतु गत बारह वर्षों से आप निरंतर मेरी नजर के सामने हैं, स्वाभाविक है। लेकिन मैं कहना चाहता हूं, तुम्हें तो कभी-कभी मेरी याद आती होगी, भूल-भूल भी जाते होओगे-स्वाभाविक है, और हजार काम हैं तुम्हें-मुझे तो और कोई काम ही नहीं है। मुझे तो सिर्फ जिनके जीवन में मेरे द्वारा काम शुरू हुआ है, उनको याद रखने के सिवाय और कोई काम ही नहीं है। मेरे पास और तो कोई झंझट नहीं है न कोई दुकान है, न कोई बाजार है, न कोई बच्चे हैं, न कोई पत्नी है—मेरी तो सारी जीवन ऊर्जा उनको उपलब्ध है जो मेरे साथ चलने को राजी हुए हैं उस अनंत की यात्रा पर। इसलिए तुम्हें आश्चर्य हुआ होगा, क्योंकि मैंने नाम लिया कल। लेकिन नाम लूं या न लूं, याद में फर्क नहीं पड़ता। नाम लेना पड़ा इसीलिए कि तुम्हारे मन में यह 315
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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