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एस धम्मो सनंतनो
अब यह जो आदमी एक हजार गाएं खदेड़कर ले गया आश्रम में, सोने से मढ़े थे उनके सींग, हीरे-जवाहरात लगे थे उनके सींगों पर, यह आदमी सीधा-सादा आदमी है। यह कोई त्यागी नहीं है। यह भोगी नहीं है यह बात पक्की है, लेकिन यह त्यागी भी नहीं है। यह एक और ही दशा है। यह साक्षीभाव की दशा है। यह सिर्फ द्रष्टामात्र है। यह सिर्फ देख रहा है।
जनक को यह बात जंची। जनक खुद भी द्रष्टाभाव में ही ठहरे हुए थे।
तो दो उपाय हैं। या तो छोड़कर भाग जाओ, या साक्षी हो जाओ। या तो भागो, या जागो। मेरा जोर जागने पर है। मैं मानता हूं कि कुछ लोग भागते रहें, उचित है। कुछ फूल अनूठे भी खिलते रहने चाहिए। लेकिन अनूठे फूलों के लिए सारी बगिया खराब नहीं की जा सकती। गुलाब भी खिले, ठीक है; गेंदा भी खिले, ठीक है; चंपा भी खिले, ठीक है; सब तरह के फूल खिलें। इस पृथ्वी पर सब तरह की संभावनाएं वास्तविक बनें। धर्म सभी तरह की संभावनाओं के द्वार खोलता है। और जो धर्म भी एक संभावना का द्वार खोलता है और शेष के बंद कर देता है, वह सभी के हित में नहीं है। उससे सबका हित नहीं हो सकता है।
चौथा प्रश्नः
भगवान श्री, यह घटना अत्यंत सच है। कल सुबह छह बजे टेप से आपका आधा प्रवचन सुना। तीन साल से सोचता था
और सुनने के बाद मैंने निश्चय किया कि कल मुझे आपसे एक प्रश्न पूछना है। प्रश्न नीचे है। प्रश्न की पहली पंक्ति थी-'अभी मैं आपकी नजर के सामने नहीं हूं, परंतु गत बारह वर्षों से आप निरंतर मेरी नजर के सामने हैं। आपसे मुझे सिर्फ एक प्रश्न पूछना है...'। यह निश्चित कर मैं कल प्रवचन में उपस्थित हुआ; तीन साल दरम्यान नहीं हुआ, सो हुआ। आपने प्रवचन में मेरा नाम लेकर मुझे आश्चर्य से भर दिया। मेरे पहले प्रश्न की पहली पंक्ति खंडित हो गयी। घटना अत्यंत छोटी लगती है, परंतु अत्यंत अदभुत है। अब प्रश्नः 1 दिसंबर 1971 को आप हमारे घर मेहमान थे। उस समय आपने मुझसे कहा था- 'माणिक बाबू, आप इस झंझट से मुक्त हो जाओ।' आपका वचन वहीं छूट गया। 72-74 में स्वास्थ्य, वित्त, कुटुंब व समाज के तलों पर अच्छी उपलब्धि
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