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________________ शब्दों की सीमा, आंसू असीम पापी हो। तुम्हारा जिम्मा है, तुमने इस आदमी को बरबाद किया है। और यह किसी काम का नहीं है। सिर्फ खड़ेश्वरी होने से काम क्या है ? प्रयोजन क्या है ? इस आदमी ने कोई गीत लिखा, कोई चित्र बनाया, कोई मूर्ति खोदी, कोई सत्य खोजा? इस आदमी ने किया क्या है ? नहीं, वे कहते हैं, यह सिर्फ खड़े हैं दस साल से। थोड़ा सृजनात्मक भी हो जीवन। सिर्फ खड़े होने का क्या मूल्य है ? झाड़ खड़े हैं, पहाड़ खड़े हैं। मैं यह पूछता हूं, इसने किया क्या? वे कहते हैं, नहीं, करने की तो कोई बात ही नहीं है, बस महाराज खड़े हैं। और तुम इनकी पूजा कर रहे हो कि महाराज खड़े हैं! थोड़ा सोचकर सम्मान देना। क्योंकि सम्मान बड़ा घातक हो सकता है। सम्मान अहंकार को भरता है। और जब अहंकार भरने लगे, तो आदमी कुछ भी करने को राजी हो जाता है। तुम किसी का अहंकार भरो, वह कुछ भी करने को राजी हो जाएगा। इसलिए मैं मानता हैं कि कछ लोग जरूर छोड़कर आनंदित होते हैं, उनको छोड़कर आनंदित होना चाहिए। कुछ लोग जरूर जंगल में जाकर परम प्रसाद को उपलब्ध होते हैं, उन्हें जंगल जाना चाहिए। लेकिन ये थोड़े से लोग होंगे, इक्के-दुक्के, कभी-कभी। और ये होते रहें, अच्छा है। लेकिन यह संन्यास की सहज धारणा नहीं बननी चाहिए। बड़े पैमाने पर अधिकं लोग तो संन्यस्त तभी हो सकेंगे जब जीवन की सहजता में संन्यास उतरे। दुकान जाते, घर काम करते, बेटे-बच्चों को पालते, पत्नी-पति की फिक्र करते, इस जीवन के घनेपन में संन्यास उतरे। __इसलिए मैंने संन्यास को एक नया रूप दिया। नया सिर्फ इसलिए कि पुराना खो गया, अन्यथा बहुत पुराना है। मैं जिसको संन्यासी कहता हूं...मेरे पास हिंदू आ जाते हैं, वे कहते हैं, यह कैसा संन्यास? मैं उनसे कहता हूं, तुम पागल हो गए हो! तुम अपने ऋषि-मुनियों को बिलकुल भूल ही गए हो! वे घर में थे। कथाएं उपनिषद में पढ़ो। - जनक ने एक बहुत बड़ा शास्त्रार्थ का आयोजन करवाया और एक हजार गाएं खड़ी कर दी महल के द्वार पर। उनके सींगों पर सोना मढ़ दिया और हीरे-जवाहरात जड़ दिए और कहा, जो शास्त्रार्थ में जीत लेगा, वह इन एक हजार गायों को ले जाएगा। याज्ञवल्क्य अपने विद्यार्थियों को लेकर आया गुरुकुल से। दोपहरी हो गयी थी और गाएं पसीने में खड़ी थीं, धूप पड़ रही थी। याज्ञवल्क्य ने अपने विद्यार्थियों से कहा, बेटे, गायों को तुम खदेड़कर ले जाओ आश्रम में, विवाद मैं निपटा लूंगा। जनक भी थोड़ा घबड़ाया। इतना भरोसा! कि जीत का इतना भरोसा!! किसी ने कहा भी कि महाराज, पहले विवाद तो आप जीत लें। उसने कहा, छोड़ो, गाएं धूप में बहुत थकी जा रही हैं! उसने तो अपने विद्यार्थियों को आज्ञा दे ही दी। और विद्यार्थी गाएं खदेड़कर ले भी गए। विवाद उसने बाद में जीत लिया। 313
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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