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शब्दों की सीमा, आंसू असीम
तो छू सकते हैं। इसको तो कह सकते हैं कि तुमने मारकर दिखाया।
तुम स्त्री के पीछे दीवाने हो, कामवासना तुम्हें घेरे रखती है; और तुमने देखा एक आदमी सारे जाल को छोड़कर अलग-थलग खड़ा हो गया है ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर; तुम प्रभावित होते हो। क्योंकि प्रत्येक कामी को कभी न कभी मन में यह बात उठती है कि कामवासना में परतंत्रता है।
इसीलिए तो कोई पति पत्नी से प्रसन्न नहीं, कोई पत्नी पति से प्रसन्न नहीं । प्रसन्न हो नहीं सकते। क्योंकि हम उससे कभी प्रसन्न नहीं हो सकते जिस पर हमें निर्भर रहना पड़ता है। उसी में तो हमारी गुलामी छिपी है। पति जानता है कि पत्नी में मेरी गुलामी है, इसके बिना मैं नहीं रह सकता। यह चार दिन मायके चली जाती है तो मुझे मुश्किल हो जाती है। इसके बिना मेरा क्या होगा ? तो स्वभावतः इस पर क्रोध भी आता है। क्योंकि मैं इसके बंधन में पड़ा हूं।
इसीलिए तो तुम्हारे अनेक शास्त्रों में स्त्रियों के प्रति बड़ी भद्दी और अभद्र बातें लिखी हैं। जिन ने ये लिखी हैं, इनका मन स्त्रियों में बहुत ज्यादा लगाव से भरा रहा होगा। सीधा-साफ है। गणित बिलकुल सीधा है । इनके मन में स्त्रियों के प्रति प्रबल आकर्षण रहा होगा, इसीलिए ये नाराज हैं।
इसलिए तुम्हारे साधु-संन्यासी दो चीजों के बड़े खिलाफ हैं, कामिनी और कांचन | क्योंकि ये दो ही चीजें खींचती हैं। या तो धन, या रूप । तो साधु-संन्यासी समझाते रहते हैं, कामिनी-कांचन से सावधान ! उनको भी घबड़ाहट है। और तुमको भी घबड़ाहट है, तुमको भी बात तो जंचती है कि बात तो ठीक है, ये ही तो दो झंझट के कारण हैं। जर, जोरू, जमीन। ये ही तीन तो उपद्रव के कारण हैं।
फिर कोई आदमी तुम्हारे बीच से, तुम्हारे जैसा आदमी एक दिन अचानक छोड़कर चला जाता है। तुम बड़े चकित हो जाते हो ! तुम अवाक रह जाते हो। तुम कहते हो, है, मर्द हो तो ऐसा ! तुम्हारे मन में भी आकांक्षा तो यही है कि कभी ऐसा मैं भी कर सकूं, अभी नहीं कर पा रहा हूं, तो भी कम से कम इस आदमी के चरण छूकर इसकी पूजा तो कर सकता हूं।
तो जब जैन और बौद्ध संन्यासी पैदा हुए तो हिंदू संन्यासी एकदम फीका पड़ गया। उसकी कोई पूछ ही न रही। क्योंकि लोग कहने लगे कि तुम काहे के संन्यासी ! किस बात के संन्यासी हो ?
तुम चकित होओगे कि हिंदू-मुनि, उपनिषद का ऋषि-मुनि, बिलकुल तुम जैसा ही गृहस्थ था । उसके भीतर कुछ हुआ था, लेकिन वह भीतरी था । अब भीतरी की जांच तो उन्हें हो, जिन्हें भीतरी हो । बाहर से तो वह तुम जैसा था । कभी-कभी तो ऐसा होता था, तुमसे भी ज्यादा अच्छी हालत में था । क्योंकि राजा, सम्राट उसके चरणों में आते, धन भेजते, धान्य भेजते; तुमसे अच्छी हालत में था । देशभर के बड़े-बड़े परिवारों के बेटे उसके पास पढ़ने आते, उनके साथ धन भी आता ।
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