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शब्दों की सीमा, आंसू असीम
है। इसलिए बच्चे सुंदर हैं, साधु हैं, प्रीतिकर हैं। धीरे-धीरे धूल जमेगी और सब खो जाएगा। धीरे-धीरे धूल जमेगी, अहंकार अकड़ेगा। और हमारे सारे शिक्षालयस्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक — सिर्फ अहंकार की शिक्षा देते हैं, महत्वाकांक्षा जाते हैं, एम्बीशन पैदा करते हैं। कुछ बनो, कुछ करके दिखा दो ।
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इसी कुछ बनने और करने की शिक्षा का परिणाम है कि सारी दुनिया कलह और संघर्ष में लगी है। हर आदमी एक-दूसरे के गले को दबा रहा है, और हर आदमी के हाथ दूसरे के खीसों में पड़े हैं, और हर आदमी एक-दूसरे के साथ झपटने की कोशिश में लगा है। यहां मित्रता तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि जिनको तुम मित्र कहते हो, वे भी तुम्हारे प्रतियोगी हैं। यहां मित्रता नाममात्र को है, यहां सभी शत्रु हैं। यहां कौन मित्र है! यहां कैसे कोई मित्र हो सकता है !
बुद्ध ने कहा है, मित्रता तो उसी से हो सकती है जिसके साथ तुम्हारा कोई प्रतिस्पर्धा का संबंध न हो। मैत्री तो उसी से हो सकती है जिसने महत्वाकांक्षा गिरा दी हो। इसलिए बुद्ध ने कहा है कि सिर्फ बुद्धपुरुष ही मित्र हो सकते हैं। उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं, तुमसे कुछ लेना नहीं, तुमसे कुछ देना नहीं । तुमसे कोई संघर्ष ही नहीं, उनका संघर्ष ही नहीं रहा है। उन्होंने हथियार फेंक दिए, और उन्होंने धारा को स्वीकार कर लिया है। अब वे गंगोत्री की तरफ नहीं बहते, गंगासागर की तरफ जा रहे हैं। धारा जहां ले जाएगी, वहीं उनका गंतव्य है। ऐसी हार में ही जीत है।
क्यों? क्योंकि ऐसा हारा हुआ आदमी पूर्ण के साथ एक हो जाता है।
इसे मुझे इस तरह कहने दो, तुम जब तक हो तब तक हार है। जैसे ही तुम मिटे और परमात्मा हुआ कि फिर जीत ही जीत है।
तीसरा प्रश्न :
क्या कारण है कि विश्व की लगभग सभी संन्यास की परंपराओं ने भिक्षावृत्ति और अगृही होने को सनातन रूप से महत्व दिया है ?
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ह धारणा गलत है। ऐसा सच नहीं है। ऐसा दिखायी पड़ता है, लेकिन ऐसा सच नहीं है। विश्व की लगभग सभी संन्यास की परंपराओं ने भिक्षावृत्ति और अगृही होने को सनातन महत्व नहीं दिया है। जरा भी नहीं दिया है।
हिंदू, अगर तुम उनके मूलभाव को समझो, तो ऋषि-मुनियों को अगृही होने का उपदेश नहीं देते थे। और ऋषि-मुनि, वशिष्ठ या विश्वामित्र, या उपनिषद के सारे मनीषी गृहस्थ ही थे। भला जंगल में रहते हों, उनकी पत्नियां थीं, उनके बच्चे
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