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________________ फिर सजग हृद्द्वंत्रियों के गीत में सप्तक मंजेंगे पर न अब तुम फिर बजोगे श्लोक बन बनकर सजोगे मौन में भी ढलेंगे, पर कहां तक ? कह नहीं सकते। फिर वही दीपक जगेंगे ज्योति के मेले लगेंगे फिर सजीली घाटियों को किरण कंचन से भरेंगे पर न तुम अब फिर जगोगे ज्योति बन जीवन रंगोगे धूम्र में भी जलेंगे, पर कहां तक ? शब्दों की सीमा, आंसू असीम कह नहीं सकते। आदमी बहुत बार जागने-जागने के करीब आ जाता है । तुम्हारा कोई प्रियजन मर गया। बड़े करीब होते हो तुम बुद्धत्व के उस घड़ी में। जब तुम मौत के दुख में होते हो, बुद्धत्व बहुत करीब होता है । अगर पकड़ लो सूत्र तो छलांग लग जाए। लेकिन तुम सूत्र पकड़ नहीं पाते, तुम दुख को झुठला लेते हो। तुम अपने को समझा लेते हो, मना लेते हो। तुम फिर नयी-नयी आशाओं के सपनों पर सवार हो जाते हो । दुख झकझोरता है, लेकिन तुम उस झकोरे को भी समा लेते हो अपने में। सांत्वना बांध लेते हो, सोचते हो, फिर सब ठीक हो जाएगा, फिर वसंत आएगा, फिर फूल लगेंगे। 1 यह भी सच है कि जो चल बसा है, अब दुबारा तुम्हें न मिल सकेगा, लेकिन इस पर ही कोई जीवन थोड़े ही समाप्त हो जाता है । और भी लोग हैं, और भी प्रियजन हैं, और जो आज प्रिय नहीं हैं कल प्रिय हो सकते हैं। जो हो गया, भूलो, बिसारोआशा कहती है— छोड़ो उसे, अभी बहुत कुछ हो सकता है, भविष्य को देखो, अतीत पर अटके मत रहो। और अहंकार कहता है, क्या इतनी जल्दी हार मान लोगे ? क्या इतने कमजोर हो ? अहंकारी व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति को बड़ी दया से देखता है। उसकी दया यही होती है कि बेचारे ने हार मान ली। संन्यस्त हो गया ! तो छोड़ दिया संघर्ष । समर्पण कर दिया ! हथियार डाल दिए ! अहंकारी मान ही नहीं पाता यह बात कि कोई आदमी क्यों समर्पण करेगा ! अहंकारी तो कहता है, आखिरी दम तक लड़ते रहना । अहंकारी 301
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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