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एस धम्मो सनंतनो
मालकियत की घोषणा हो जाती है-तुम ऐसा करो ही; करना ही पड़ेगा; किया तो ठीक, नहीं किया तो खतरा है।
बुद्धपुरुष उपदेश देते हैं। उपदेश और आदेश में फर्क है।
आदेश में आज्ञा है, उपदेश में मनुहार। उपदेश में सिर्फ फुसलावा है। उपदेश में सिर्फ इस बात की खबर है कि ऐसा करने से मुझे कुछ हुआ है, अगर तुम्हें भी करना हो, तुम कर सकते हो, तुम मालिक हो। तुम अगर दुखी हो, तो इसलिए दुखी हो कि तुम कुछ कर रहे हो जिससे दुख पैदा हो रहा है। यह लो कुंजी, इससे मेरे आनंद के मंदिर का द्वार खुला है। अगर खोलना चाहो, तो तुम यह न कह सकोगे कि कुंजी किसी ने तुम्हें बतायी न थी।
फिर उपदेश का यह भी अर्थ होता है, जो अत्यंत पास बैठकर ग्रहण किया जाए। उपदेश का अर्थ होता है, पास बैठना, निकट होना। उपदेश का अर्थ होता है, जिसके साथ तुम्हारे भीतरी देश का मेल हो जाए। जो अंतर-आकाश है, वह अंतर-आकाश एक हो जाएं। देश यानी आकाश, स्थान; उप यानी पास। दो व्यक्तियों के अंतर-आकाश जब इतने पास हो जाते हैं कि उनकी सीमा गिर जाती है, वहां उपदेश है।
तो उपदेश केवल शिष्य के लिए हो सकता है। उसके लिए हो सकता है जो इतना झुककर करीब आ गया है कि अब अपने को अलग मानता ही नहीं। जो इतने निकट आ गया है कि तुम अगर न भी बोलो तो सुन लेगा। तुम्हारा मौन भी सुनायी पड़ेगा जिसे, उसे ही उपदेश दिया जा सकता है। _ फिर छोटी-छोटी बातें क्रांति कर जाती हैं। ये जो बुद्ध की हम गाथाएं पढ़ रहे हैं, छोटी-छोटी बातें हैं-कभी दो वचन कहे, कभी चार वचन कहे। इन छोटे-छोटे वचनों ने लोगों के जीवन में निर्वाण का स्वाद दे दिया है।
तम चकित होओगे कि हम तो सुनते हैं, हमें तो वैसा निर्वाण का स्वाद नहीं होता, धम्मपद पढ़ लेने से हमें तो कुछ भी नहीं होता। और धम्मपद में कथा आती है कि यह मरता हुआ आदमी बुद्ध के दो शब्द सुनकर स्रोतापन्न हो गया, या अनागामी हो गया, अब दुबारा कभी लौटेगा नहीं संसार में। यह कैसे हुआ होगा! ये छोटे से दो शब्द! यह सुनने के ढंग पर निर्भर है। ___ तुम्हारे लिए धम्मपद एक किताब है। पढ़ ली, जैसे और किताबें पढ़ लीं। धम्मपद के शब्द तुम्हारे लिए शब्द हैं, जैसे और शब्द हैं। जिस व्यक्ति के जीवन में इसको सुनकर क्रांति घटी थी, उसने इसे उपदेश की तरह स्वीकार किया था; यह बुद्ध के पास, निकट, निकट बैठ-बैठकर उनके रंग में रंग गया था। फिर यह तो बहाना बन गया। इसने अपने हृदय के सारे द्वार खोल दिए थे, इसने बुद्ध को भीतर आने दिया था।
बुद्ध के पास और कुछ देने को है भी नहीं। उनके पास देने को है वह प्रेम, जो
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