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सत्य सहज आविर्भाव है
इस फर्क को खयाल में लेना। भोजन तुम भी करते हो, भोजन रवींद्रनाथ भी करते हैं, भोजन कालिदास भी करते हैं, भोजन महावीर भी करते हैं, बुद्ध भी करते हैं। लेकिन उसी भोजन से रवींद्रनाथ के जीवन में गीत लगते हैं, उसी भोजन से कालिदास के जीवन में काव्य लगता, उसी भोजन से महावीर के जीवन में अहिंसा लगती, उसी भोजन से बुद्ध के जीवन में समाधि फलती, तुम्हारे जीवन में क्या फलता? सिर्फ मल-मूत्र पैदा होता है।
यह कुछ अजीब सी बात है। इस ऊर्जा को रूपांतरित करो। तो बुद्ध ने ये सूत्र कहे'स्वाध्याय न करना मंत्रों का मैल है।'
मंत्र तो सीख लिया, दोहरा दिया तोते की तरह और उसका स्वाध्याय न किया, तो मंत्र पर धूल जम जाती है। फिर मंत्र मैला हो गया। मंत्र को साफ करो, निखारो। मंत्र में जरूर शक्ति है-जैसे दर्पण में चित्र बन सकता तुम्हारा, लेकिन धूल तो हटाओ। जैसे दर्पण पर धूल जम जाती है, ऐसा बुद्ध कहते हैं, मंत्र पर भी धूल जम जाती है, शास्त्र पर भी धूल जम जाती है, शब्द पर भी धूल जम जाती है, उसे झाड़ो। झाड़ोगे कैसे? स्वाध्याय से। जो कहा है शब्द ने, उसे जीवन में उतारो, निखारो, पहचानो, परीक्षा करो, प्रयोग करो। 'झाड़-बुहार न करना घर का मैल है।'
और जैसे घर में कोई झाडू-बुहारी न लगाए, तो घर में मैल, धूल इकट्ठी होती जाती है। ऐसे ही भीतर कोई झाडू-बुहारी न लगाए तो भीतर के घर में भी धूल इकट्ठी होती चली जाती है। जिनको तुम विचार कहते हो, वे धूल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।
एक झेन कथा है।
एक युवक अपने गुरु के पास वर्षों रहा, और गुरु कभी उसे कुछ कहा नहीं। बार-बार शिष्य पूछता कि मुझे कुछ कहें, आदेश दें, मैं क्या करूं? गुरु कहता, मुझे देखो। मैं जो करता हूं, वैसा करो। मैं जो नहीं करता हूं, वह मत करो, इससे ही समझो। लेकिन उसने कहा, इससे मेरी समझ में नहीं आता, आप मुझे कहीं और भेज दें। झन-परंपरा में ऐसा होता है कि शिष्य मांग सकता है कि मुझे कहीं भेज दें, जहां मैं सीख सकूँ। तो गुरु ने कहा, तू जा, पास में एक सराय है कुछ मील दूर, वहां तू रुक जा, चौबीस घंटे ठहरना और सराय का मालिक तुझे काफी बोध देगा। ___ वह गया। वह बड़ा हैरान हुआ। इतने बड़े गुरु के पास तो बोध नहीं हुआ और सराय के मालिक के पास बोध होगा! धर्मशाला का रखवाला! बेमन से गया। और वहां जाकर तो देखी उसकी शकल-सूरत रखवाले की तो और हैरान हो गया कि इससे क्या बोध होने वाला है! लेकिन अब चौबीस घंटे तो रहना था। और गुरु ने कहा था कि देखते रहना, क्योंकि वह धर्मशाला का मालिक शायद कुछ कहे न कहे,
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