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________________ सत्य सहज आविर्भाव है अटक-अटक गए। बड़ी आकांक्षा थी प्रभावित करने की, वही अटकाव बन गयी। नहीं तो लालुदाई ऐसे तो बोलते ही थे। तुम खयाल रखना, तुम्हारे जीवन में जितने उपद्रव खड़े होते हैं, वे प्रभावित करने की आकांक्षा से खड़े होते हैं। तुम अगर प्रभावित न करना चाहो तो तुम प्रभावशाली हो। तुम प्रभावित करने जाओ, तुम सारा प्रभाव खो दोगे। तुमने देखा है, एक स्त्री साधारण बैठी अपने घर में, अपने बच्चे के साथ खेल रही है, सुंदर होती है। और जब वही स्त्री सब तरह का रंग-रोगन इत्यादि करके, आभूषण लादकर और सुंदर साड़ियां पहनकर सड़क पर निकलती है, तो अचानक बेहूदी हो जाती है। वह जो सरलता थी, वह जो सौंदर्य था, वह गया। अब वह प्रभावित करने में उत्सुक है। अब वह साधारण स्त्री नहीं है, अब वह अभिनय कर रही है। यह सड़क, दर्शकों की भीड़ है यहां। यह सब सड़क जो है, समझो थिएटर है, जहां सारे लोग देखने को उत्सुक हैं। अब उसने खूब रंग-रोगन कर लिया है, चेहरे पर पाउडर पोत लिया है, भड़काने वाली साड़ी पहन ली है, चमकने वाले गहने पहन लिए हैं, इन सबके बीच वह फूहड़ हो गयी। फूहड़ता प्रभावित करने की आकांक्षा से पैदा होती है। और इस प्रभावित करने की आकांक्षा में वह स्त्री स्त्री न रही, वेश्या हो गयी। वेश्या का मतलब क्या होता है? इतना ही कि दूसरे को प्रभावित करने की बड़ी प्रबल आकांक्षा है। इस स्त्री ने अपना सतीत्व खो दिया, क्योंकि अपनी सहजता खो दी। सौंदर्य तभी सुंदर होता है जब कोई बिलकुल सहज होता है। जैसे ही जटिलता आयी कि सौंदर्य में बाधाएं पड़ जाती हैं। __ लालूदाई ऐसे तो बोलते ही थे। इन्हीं लोगों को प्रभावित कर दिया था कहकर कि क्या बकवास लगा रखी है? इन्हीं को चौंका दिया था कि क्या रखा है सारिपुत्र में! अरे, जवाहरात की परख करनी हो तो जौहरी से पूछो, मैं रहा जौहरी, मुझसे पूछो। इन सबको मैं जानता हूं, कुछ भी नहीं है इनमें। यही गांव प्रभावित हुआ था। यही गांव इकट्ठा हो गया सुनने। आज भीड़ के सामने खड़े होकर मुश्किल खड़ी हो गयी। तीन बार बोलने की चेष्टा की, अटक-अटक गए। बस संबोधन ही निकलता, उपासको! और वाणी अटक जाती। __ यह कहानी पढ़कर मुझे एक याद आयी। ऐसी घटना घटी। जब मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था; तो मुझे काफी शौक था वाद-विवाद में जाने का। अब भी चला गया, ऐसा नहीं है। तो मैं सारे मुल्क में कहीं भी विवाद हो, किसी यूनिवर्सिटी में हो, चला जाता। इतने मैंने मेडल और इतनी ट्राफी इकट्ठी कर ली थीं कि मेरी मां कहने लगी कि इस घर में अब जगह बचने दोगे कि नहीं? कि हम रहें कहां? इकट्ठा ही करता गया। जहां कहीं खबर मिलती, मैं पहुंच जाता। और मेरा कालेज बहुत उत्सुक था, क्योंकि उनका नाम बढ़ता। 279
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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