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एस धम्मो सनंतनो
और शास्त्रों से सभी के लिए सहारा खोजा जा सकता है। कोई अड़चन नहीं है। थोड़ा चालाक तर्क चाहिए। मगर उनको बड़ा लाभ हुआ, इससे उन सज्जन को बड़ा लाभ हुआ। फिर नहीं गए वह दुबारा उन महात्मा के पास। जब उन्होंने देखा कि उन्हीं की जूठी मिठाई लोग खाने लगे, तो उन्होंने कहा, अब कोई सार नहीं, मैं समझ गया, यह हो सकता है, लोग बिलकुल अंधे हैं। ___ लालूदाई की ये बातें सुनकर गांव के लोग खूब प्रभावित होने लगे। लालूदाई ने कहा कि हर कभी, हर मौसम में थोड़े ही; ठीक समय की प्रतीक्षा; अनुकूल समय पर जरूरत हुई, तुम पात्र हुए, तो कहूंगा। और इस बीच लालूदाई अपना व्याख्यान तैयार करने में लगे थे। व्याख्यान शब्द-शब्द कंठस्थ हो गया तो फिर उन्होंने कहा, अब मौसम आ गया है, ऋतु आ गयी और अब लोग पात्र हो गए। वही के वही लोग! अब ये मिट्टी के पात्र थे, अब सोने के हो गए। जब तुम्हारे पास बोलने को कुछ आ गया, तो अब कौन फिकर करता है पात्र इत्यादि की। और अभी तक कहते थे, ज्ञानी बोलता ही नहीं, ज्ञानी तो चुप रहते हैं। अब वह बात छोड़ दी, अब ज्ञानी बोलने लगा। अब ज्ञानी तैयार था बोलने के लिए।
खयाल रखना, तैयारी से तुम जो बोलोगे, वह झूठ होगा। सहजता से जो आएगा, वही सच होगा। सत्य सहज आविर्भाव है। उसका कोई आयोजन थोड़े ही करना पड़ता। और जब तुम आयोजन करोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। लालूदाई अकारण मश्किल में नहीं पड़ गए। ऐसे तो बातचीत कर ही लेते थे। बोलते ही थे। __तुमने देखा, हर आदमी बात कर लेता है। और काफी मजे से बात कर लेता है। साधारण आदमी भी रसदायी बातें करते हैं। उनके साथ भी बात करने में मजा आ जाए, उनकी बात सुनने में मजा आ जाए। साधारण आदमियों में भी बड़ी कला होती है बोलने की। लेकिन उनको मंच पर बिठा दो तो मुश्किल खड़ी हो जाती है। यही मंच के नीचे इतने मजे से बोल रहे थे, बात कर रहे थे, मंच पर बैठते ही कुछ गड़बड़ हो जाती है। क्या बात हो गयी? इनके पास जबान वही, कंठ वही, यह आदमी वही, जरा सी ऊंचाई पर बैठ गए, इससे फर्क क्या पड़ सकता है!
फर्क यह पड़ जाता है कि जब तक साधारण बातचीत कर रहे थे, तब तक इन्हें इस बात का अहंकार-बोध नहीं था कि मुझे लोगों को प्रभावित करना है। तब तक सीधी-सीधी बात हो रही थी, बातचीत हो रही थी। अब ऊपर मंच पर बैठते ही से हजार आदमी दिखायी पड़े, दो हजार आंखें इनकी तरफ टकटकी लगाकर देख रही हैं। अब ये घबड़ाए, कि कहीं ऐसा न हो कि मैं प्रभावित न कर पाऊं! और जैसे ही यह खयाल पैदा हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि मैं प्रभावित न कर पाऊं कि अड़चन आ जाती है, बाधा आ जाती है। __लालूदाई का व्याख्यान तैयार हो गया, शब्द-शब्द कंठस्थ हो गया, तो आसीन हुए धर्मासन पर। पूरा गांव सुनने आया। तीन बार बोलने की चेष्टा की, पर
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