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________________ सत्य सहज आविर्भाव है इलाज होना चाहिए, इनको तुम नाहक अटकाए हुए हो। इस आदमी के पास कुछ भी नहीं है। इसे कुछ हुआ भी नहीं है। वह कहने लगे, ऐसा कैसे हो सकता है! फिर इतने लोग इनकी पूजा कैसे करते हैं! तो मैंने कहा, तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हारी पूजा तीन दिन के भीतर करवा दूं, फिर तो मानोगे? वह बोले, फिर मान लूंगा। मेरी कौन पूजा करेगा? मैंने कहा, तुम एक काम करना, तुम चुप रहना, बोलना भर नहीं तीन दिन। उन्होंने कहा, ठीक। वह मेरे साथ कलकत्ता गए। जिस घर में हम ठहरे थे, वह एक बड़े प्यारे आदमी थे-सोहनलाल दूगड़। अब तो चल बसे। मैंने उनसे कहा कि तुम बोलना ही मत। जैसे ही सोहनलाल ने मेरे साथ इनको देखा, पूछा, आप कौन हैं? मैंने कहा, आप एक बड़े परमहंस हैं। वह बिचारे बड़े घबड़ाए, सीधे-सादे आदमी! तो इनकी खूबी क्या है? मैंने कहा, यह बोलते नहीं, आपने तो सुना है न कि ज्ञानी बोलते नहीं। वह एकदम उनके पैरों में गिर पड़े, सोहनलाल उनके पैरों में गिर पड़े कि गुरुदेव, अच्छे आए! ____ वह तो बड़े हैरान हुए, सज्जन तो बड़े हैरान हुए कि मामला क्या है! और सीधे-सादे आदमी हैं, छोटी-मोटी दुकान है। और ये सोहनलाल तो करोड़पति थे, यह तो वह सोच ही नहीं सकते थे कि सोहनलाल के घर में भी जगह, उनको प्रवेश मिलेगा, इसकी भी संभावना नहीं थी। सोहनलाल उनके पैरों में गिर पड़े, सोहनलाल उनको भोजन कराएं, हाथ से पंखा झलें, वह बड़े बेचैन! रात को मुझसे बोलते थे—जब हम दोनों एकांत में रह जाएं-वह कहें कि मुझे छुड़ाओ, यह बात ठीक नहीं है, यह बात उचित नहीं हो रही है। ____ और भी लोग आने लगे। जब सोहनलाल किसी के चरण छूते हों, तो वह तो राजस्थान के बड़े प्रसिद्ध आदमी थे, तो कलकत्ते के और मारवाड़ी आने लगे, स्त्रियां आने लगीं, लोग फूल चढ़ाने लगे। वह रात मुझसे कहें, मुझे बचाओ। यह बात ठीक नहीं, यह पाप हो रहा है। मैंने कहा, अभी यह तीन दिन का मामला है, अगर तुम तीन साल रह जाओ तो पूरा कलकत्ता तुम्हें पूजेगा, तुम तो चुप भर रहो! ___ आदमी बड़ा नासमझ है। आदमी की नासमझी का कोई अंत नहीं। तीन दिन में तो हालत यह हो गयी उनकी कि भीड़ रोकना मुश्किल हो गयी। तीन दिन के बाद जब हम वापस लौटे, तो ट्रेन पर उनको कई लोग छोड़ने आए थे, फूलमालाएं पहनायी गयीं और उनसे लोग प्रार्थना कर रहे थे—गुरुदेव, आप आना। किसी को उनके सान्निध्य में बड़ा लाभ हुआ, किसी की बीमारी चली गयी, किसी को कुछ हो गया, किसी को कुछ हो गया, किसी की कुंडलिनी जगी, किसी को कुछ...। जैसे ही ट्रेन चली, वह मेरे पैर पकड़ लिए, वह बोले कि मेरी कुंडलिनी अभी जगी नहीं, और इन लोगों की जग गयी! __ सौ में निन्यानबे तुम्हारे संत-महात्मा ऐसे महात्मा हैं। तुम्हारी मान्यता के हैं। 277
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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