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________________ सत्य सहज आविर्भाव है गया, अमृत जैसा घुल गया; यह वचन उनके भीतर गया और उनके भीतर कुछ मिठास छोड़ गया, कोई सुगंध छोड़ गया। यह सुगंध सूक्ष्म है, स्थूल के जगत में इसके लिए कोई प्रमाण नहीं है। असल में वे सारिपुत्र के संबंध में थोड़े ही कह रहे थे, वे अपने संबंध में कह रहे थे। लालूदाई ने भी सारिपुत्र का वचन सुना, उसके भीतर तो सिर्फ जलन फैल गयी, आग फैल गयी; उसके भीतर तो कांटे ही कांटे उग गए। और ये कहते हैं, कमल खिल गए हैं हमारे भीतर! कहां खिले हैं? ___जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह सिद्ध नहीं होता। इसलिए जो लोग सिद्ध करने में लगे हैं, उन्हें निकृष्ट से राजी होना पड़ेगा। वे श्रेष्ठ की यात्रा पर नहीं जा सकते। इसलिए नास्तिक निकृष्ट से राजी हो जाता है। श्रेष्ठ सिद्ध होता नहीं, जो सिद्ध होता नहीं, उसे वह मानता नहीं। जो सिद्ध हो सकता है, उसे वह मानता है। जो सिद्ध हो सकता है, वह स्थूल है। प्रेम सिद्ध नहीं होता, पत्थर सिद्ध हो जाता है। तुम पत्थर को इनकार करो तो तुम्हारी खोपड़ी पर पत्थर मारा जा सकता है-पता चल जाएगा कि है या नहीं। लेकिन तुम प्रेम को इनकार करो तो तुम्हारी खोपड़ी पर प्रेम तो मारा नहीं जा सकता। उसकी तो कोई चोट न लगेगी। इस बात को खयाल रखना, जितनी ऊंची बात है, उतनी ही इनकार करनी आसान। जितनी नीची बात है, उतनी इनकार करनी कठिन। यह लालूदाई बोला, क्या व्यर्थ की बकवास लगा रखी है? कैसा अमृत-रस? कैसा बोध? कैसी समाधि? कहां की बातें कर रहे हो, होश में हो? गांव के सीधे-सादे लोग, चौंक गए होंगे। और तब उसने कहा कि कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ बैठे हो। परख करनी है तो पारखियों से पूछो। जवाहरातों को जंचवाना है तो जौहरियों से पूछो। तुम गांव के गंवार, खेती-बाड़ी करते जिंदगी बीती, ऊंची बातों के लिए निर्णय ले रहे हो! ___गांव के सीधे-सादे लोग, भौचक्के खड़े रह गए होंगे। क्या कहें! और तुम खयाल रखना, गांव के लोग ही भौचक्के रह जाएंगे ऐसा नहीं, कितना ही सुसंस्कृत व्यक्ति हो, श्रेष्ठ को सिद्ध तो किया ही नहीं जा सकता, वह भी चुप रह जाएगा। जो भगवान को जानते हैं, उनके सामने भी अगर तुम तर्क करने खड़े हो जाओगे, तो वे भी चुप रह जाएंगे। इसीलिए तो सारे संतों ने कहा है कि श्रेष्ठ को जानना हो तो श्रद्धा द्वार है। संदेह से तो श्रेष्ठ के द्वार बंद हो जाते हैं। जहां संदेह है फिर तुमने तय कर लिया कि तुम क्षुद्र के जगत में ही जीओगे, तुमने विराट का द्वार बंद कर दिया। मुझसे पूछो, उसने कहा। अरे, मेरी सुनो! मैं हूं भिक्षु, मैं जानता हूं क्या समाधि, क्या ध्यान, क्या बोध, क्या अमृत, क्या रस; जीवन इसमें लगाया है। और अगर प्रशंसा ही करनी है तो मेरे धर्मोपदेश की करो। 273
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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