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________________ सत्य सहज आविर्भाव है नहीं, लेकिन वह कहने लगे, भगवान होकर किसी की आलोचना! तो मैंने कहा, तुम यह कहो न कि मैं भगवान नहीं हूं, सीधी बात कहो! तो महावीर भगवान हैं कि नहीं? तब उन्हें पसीना आने लगा। क्योंकि महावीर ने तो बड़ी कठोर आलोचना की है। करनी पड़ी है। करुणा से की है, करनी ही चाहिए थी। महावीर की उस आलोचना के कारण बहुत लोग गोशालक के चक्कर में पड़ने से बचे। अन्यथा महावीर जिम्मेवार होते। समझो कि उन्होंने आलोचना न की होती, उन्होंने कुछ न कहा होता, मौन साधे रखा होता, तो जो लोग गोशालक के चक्कर में पड़ते और नहीं पड़े उनकी आलोचना से, उनके जीवन को भ्रष्ट करने की जिम्मेवारी किसकी होती? उनके जीवन को भ्रष्ट करने की जिम्मेवारी महावीर की होती। और महावीर ने वह जिम्मेवारी नहीं लेनी चाही। उससे ज्यादा बेहतर यही था कि जैसा है वैसा कह दिया जाए। आलोचना में कुछ रस नहीं है, आलोचना में कोई किसी का विरोध नहीं है, कोई वैयक्तिक दुश्मनी नहीं है। - लेकिन तुम्हें यहां भी लोग मिल जाएंगे, वे कहेंगे, आज भगवान ने ठीक नहीं कहा। दो-चार को इकट्ठा करके, गिरोह बनाकर वे समझाएंगे कि ठीक नहीं कहा, यह बात नहीं कहनी थी, यह बात उनके योग्य नहीं है। ये प्रकारांतर से बदला ले रहे हैं। ये झुके, इस बात को भूल नहीं पाते। ये किसी न किसी तरह से चोट पहुंचाएंगे। इनसे तुम सावधान रहना, ये लालूदाई हैं। ___ उस लालूदाई ने उपासकों से कहा, क्या व्यर्थ की बकवास लगा रखी है ? क्या रखा है सारिपुत्र और मौदगल्लायन में? कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ बैठे हो! परख करनी हो तो पारखियों से पूछो, मुझसे पूछो। और प्रशंसा करनी है तो मेरे धर्मोपदेश की करो। एक दुनिया में बड़ी सरल बात है, उसे खयाल में रखना। कोई आदमी कह रहा है, गुलाब का फूल बड़ा सुंदर है। इसे सिद्ध करना बहुत कठिन है कि गुलाब का फूल सुंदर है। कैसे सिद्ध करोगे? तुम भी राजी हो जाते हो, यह बात दूसरी है। लेकिन अगर तुम कह दो कि नहीं, मैं राजी नहीं होता, प्रमाण दो कि गुलाब का फूल सुंदर क्यों है क्यों सुंदर है ? किस कारण सुंदर है? तो वह जो कह रहा था गुलाब का फूल सुंदर है, मुश्किल में पड़ जाएगा। तुर्गनेव की एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक गांव में एक महामूर्ख था, लोग उस पर बहुत हंसते थे। गांव का महामूर्ख, सारा गांव उस पर हंसता था। आखिर गांव में एक फकीर आया और उस महामूर्ख ने उस फकीर से कहा कि और सब पर तुम्हारी कृपा होती है, मुझ पर भी करो, क्या जिंदगीभर मैं लोगों के हंसने का साधन ही बना रहूंगा? लोग मुझे महामूर्ख समझते हैं और मैं हूं नहीं। फकीर ने कहा, एक काम कर, जहां भी कोई किसी ऐसी चीज की बात कर रहा 271
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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