SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो उनकी श्रद्धा में अंकुरण हुआ था। गांव के सीधे-सादे लोग, बुद्ध के इन शिष्यों की बात सुनकर सूरज की तरफ आंखें उठाने की कोशिश कर रहे थे। रोशनी को तलाश रहे थे। लेकिन उनके वचन पास में ही खड़े एक भिक्षु, जो बुद्ध का ही शिष्य था, नाम था उसका लालूदाई-रहा होगा लालबुझक्कड़-उसे बड़ी चोट लग रही थी। __वह भी शिष्य था बुद्ध का, उसकी कोई प्रशंसा नहीं करता। इस भांति कोई कहता नहीं कि रस तुम्हारी वाणी में, बोध तुम्हारे जीवन में, समाधि तुम्हारे हृदय में; ऐसा कोई कहता नहीं कि तुम्हारे शब्द मुर्दो को जगा देते हैं। उससे न सहा गया। उसे बड़ी बेचैनी होने लगी। उसके बर्दाश्त के बाहर हो गया। ___वह तो अपने से बुद्धिमान किसी को मानता ही नहीं था। औरों की तो बात ही छोड़ दो, वह भगवान को भी अपने से ज्यादा बुद्धिमान नहीं मानता था। गहरे में तो वह यही जानता था कि मैं अद्वितीय हूं, मेरा कोई मुकाबला! ऐसे ही तो सभी जानते हैं। कहो, न कहो, कहने से क्या फर्क पड़ता है! न कहने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जो तुम भीतर मानते हो वही फर्क लाती है बात। तुम कितनी बार चरणों में झुक जाते हो किसी के और फिर भी तुम्हारा अहंकार तो अकड़ा खड़ा रहता है, झुकता नहीं। तुम कितनी बार दर्शाते हो कि आप महान हैं, लेकिन भीतर तुम जानते हो कि मुझसे महान और कौन! अहंकार अपने से ऊपर कभी किसी को रखता ही नहीं। जो अहंकार अपने से ऊपर किसी को रख ले, वही शिष्य हो गया। जो अहंकार अपने से ऊपर किसी को रखता ही नहीं है, वह कभी शिष्य नहीं हो सकता। शिष्यत्व की कला तो इतनी सी है-अपने अहंकार को किसी से नीचे रख लेना। __ इसी कला के कारण इस देश में गुरु के चरणों में झकने का मल्य बना। वह तो प्रतीक है। वह तो बाह्य प्रतीक है भीतर की घटना का। भीतर को कैसे कहें? तो बाहर के किसी प्रतीक से कहते हैं। दुनिया के किसी देश ने पैरों में झुकने की कला नहीं खोजी। एक अपूर्व संपदा से वे वंचित रह गए। पश्चिम में कोई किसी के पैर छूने को राजी नहीं-खयाल भी नहीं उठता, बात ही गलत मालूम पड़ती है, बात ही अपमानजनक मालूम पड़ती है। पश्चिम जीता अहंकार से, पूरब जीता समर्पण से। पश्चिम जीता संघर्ष से, पूरब जीता विनम्रता से। पूरब ने एक कला खोजी है-सीखने की कला हमला नहीं है, सीखने की कला झुक जाना है। और जो जितना ज्यादा झुक जाता है, उतना ही भर जाता है। तुम नदी के किनारे खड़े हो। नदी बह रही है, तुम प्यासे हो। तुम झुको न, अंजुली न बनाओ, तो प्यासे के प्यासे रह जाओगे। नदी तुम्हारे ओंठों तक आने से रही। तुम्हें झुकना होगा, तुम्हें हाथ की अंजुली बनानी होगी, तुम्हें जल भरना होगा, तो नदी तुम्हारी तृप्ति करने को तैयार है। 266
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy