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सत्य सहज आविर्भाव है
थे–महापंडित; इन जैसा पंडित नहीं है। वे तो इसी आशा में आए थे कि बुद्ध को ये पराजित कर देंगे और बुद्ध को भी रूपांतरित कर लेंगे अपने शिष्य में।
एक ही शब्द में ये चरणों में सिर रख दिए। बड़े विवादी थे। सारे देश में घूमते थे विवाद करते, न-मालूम कितने पंडितों को हराया था। लेकिन बुद्ध के पास आकर बात चोट कर गयी। बुद्ध ने कहा, यह तुम्हारा जाना हुआ नहीं है। तुम जो भी कह रहे हो, सब उधार है। उधार से कोई कभी पहुंचा है? यह सब बासा है। मैं तुम्हें उस तरफ ले चलता हूं जहां तुम्हारे भीतर का शास्त्र निनादित होने लगे। एक क्षण में झुक गए थे। बड़ी हिम्मत चाहिए झुकने के लिए। और पंडित होने के बाद झुकने के लिए तो बहुत हिम्मत चाहिए। क्योंकि पंडित का मन तो कहता है, मैं खुद ही जानता हूं, झुकना कैसा! किसके सामने झुकना है! पांडित्य तो अहंकार को बड़ा मजबूत कर देता है, दुर्ग बना देता है अहंकार के चारों तरफ।
उस झुकने में ही क्रांति घटित हो गयी। बुद्ध ने कहा, पहले ज्ञान को भूल जाओ। ज्ञान बाधा है ध्यान में। जो सीखा है, उसे अनसीखा कर दो। स्लेट साफ कर लो, कागज को कोरा करना है। क्योंकि उस कोरे में ही उतरता है सत्य; यह गुदा हुआ कागज सत्य के काम का नहीं है। तुम खाली स्लेट हो जाओ, तुम शून्यवत हो जाओ, उसी शून्य में पूर्ण उतरेगा।
दोनों ने वर्षों तक बुद्ध के चरणों में बैठकर ध्यान लगाया। दोनों परम ज्ञान को बुद्ध के जीते-जी उपलब्ध हो गए थे। फिर जो परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाए, उसकी वाणी में अमत हो. यह स्वाभाविक है। उसकी वाणी में अमत सिर्फ उन्हें नहीं दिखायी पड़ेगा जिन्होंने न देखने की कसम खा ली है। जो थोड़े भी पुलकित होने को राजी हैं, जो हृदय की खिड़की थोड़ी खोलने को राजी हैं, जो उस वाणी को भीतर जाने देने को राजी हैं, उनके मन तो नाच उठेंगे। उनके हृदयों में तो फूल खिल जाएंगे।
श्रावस्ती के अनेक उपासक दोनों का धर्म-प्रवचन सुनकर लौटे होंगे, वे प्रशंसा कर रहे थे। कह रहे थे, अपूर्व था रस उनकी वाणी में। - रस वहीं है, जहां सत्य है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव रसरूप है। जहां अनुभव नहीं है उसका, वहां तुम कितने ही शब्दों का उपयोग करो, शब्द खाली होंगे, नपुंसक होंगे। उनके भीतर कुछ भी न होगा। खाली म्यान, जहां तलवार है नहीं। कितनी ही चमके, खाली म्यान कितनी ही सुंदर मालूम पड़े, वक्त पर काम न आएगी। शब्द कोरे के कोरे तो चली हुई कारतूस जैसे हैं, उन्हें तुम सम्हालकर रखे रहो, कुछ काम के नहीं हैं। मौके पर रक्षा न होगी। रक्षा तो उसी शब्द से होती है जिसके भीतर सत्य का अंगारा जलता हो। रस होता ही है वहां जहां अनुभव है।
तो कह रहे थे—अपूर्व था रस उनकी वाणी में, अपूर्व था भगवान के उन दो शिष्यों का बोध, अपूर्व थी उनकी समाधि।
गांव के सीधे-सादे लोग, आंदोलित हो उठे थे। गांव के सीधे-सादे लोग,
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