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________________ तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है 'अंतर मम विकसित करो, अंतरतर हे!' मांगना हो, तो चैतन्य की कुछ बात मांगना। मांगना हो, तो मुक्ति की कुछ बात मांगना। और यह प्रार्थना तुम्हें घेरे रहे, तुम्हारी श्वास-श्वास में समा जाए, तो इसके परिणाम होंगे। यह प्रार्थना परमात्मा को बदल देगी, ऐसा नहीं है, यह प्रार्थना तुम्हें बदल देगी। ___ इसको खयाल में रखना, बहुत लोग सोचते हैं कि हम प्रार्थना करेंगे तो परमात्मा बदल जाएगा और हम जो मांगते हैं, वह कर देगा। ऐसा कोई परमात्मा कहीं नहीं है। और तुम्हारी प्रार्थना से परमात्मा नहीं बदलने वाला, लेकिन प्रार्थना करने से प्रार्थी बदल जाता है। अगर तुम यह रोज-रोज गुनगुनाते रहे: 'अंतर मम विकसित करो, अंतरतर हे! निर्मल करो उज्ज्वल करो सुंदर करो, हे! जाग्रत करो । उद्धत करो निर्भय करो, हे! मंगल करो निर्लस निःसंशय करो, हे! अंतर मम विकसित करो, अंतरतर हे!' यह तुम्हारी श्वास-श्वास में गूंज पैदा हो जाए, यह तुम्हारी धड़कन-धड़कन में रम जाए, यह तुम्हारे रोएं-रोएं का कंपन बन जाए, तो ऐसा होने लगेगा। नहीं कि कोई परमात्मा कर देगा, कहीं कोई करने वाला नहीं है, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना तुम्हें बदलेगी। तुम्हारे भाव तुम्हें बदलेंगे, तुम्हारी भावना तुम्हें बदलेगी। 'युक्त करो हे साबार संगे मुक्त करों हे बंध' इस तरह की प्राणों में निरंतर एक ज्योति जलती रहे, तो तुम जैसे हो वैसे ही रह न जाओगे। छोटी-छोटी भाव की तरंग बड़ी क्रांति लाती है। 'युक्त करो हे साबार संगे मुक्त करो हे बंध संचार करो सकल कर्म 257
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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