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________________ एस धम्मो सनंतनो रहोगे, तुम मन के किसी अंधेरे कोने में सरकाते रहोगे। तो पूछा है, 'क्या उसे छिपाएं या प्रगट करें ?' प्रगट करो। और प्रगट करने को ही परमविधि मत मान लेना। इससे तुम स्वस्थ तो रहोगे, लेकिन आत्मवान न हो सकोगे। इस प्रगट करने में साथ-साथ बोध को भी जोड़ दो। इस प्रगट करने में साथ-साथ ध्यान को भी जोड़ दो। आंसुओं को भी बहने दो और तुम भीतर जागरूक होकर देखो भी — यह दुख हुआ क्यों ? निंदा मत करना। यह मत कहना कि दुख बुरा है। यह मत कहना कि दुख नहीं होना चाहिए था। निर्णय मत लेना। तुम तो सिर्फ निरीक्षण करना कि दुख क्यों हुआ है ? अगर पति के मरने से दुख हुआ है, तो उसका अर्थ इतना ही हुआ, बहुत मोह लगा लिया होगा, बहुत नाता जोड़ लिया होगा, तो दुख हो रहा है। तो आगे सावधान रहना। नाते जोड़ने में दुख है । मोह बनाने में दुख है । तो फिर मोह की रचना और मत करना। रहो संसार में, लेकिन रहो ऐसे जैसे संसार से बिलकुल अलिप्त। रहो कमलवत - पानी में, पर पानी छुए न। फिर कोई दुख नहीं है। मैंने कभी न चाहा जग को दुख का साझीदार बनाऊं पर अनजाने ही गीतों में मन का दर्द उभर आता है नयनों का हर मोती मेरा पर सुख के पल सदा विराने अनुभव सागर में डूबा तो सत्य लगा मुझको अपनाने विरहाकुल हो जब भी भटका कण-कण में तुमको ही देखा पर यदि पास हुए तुम मेरे परिचित भी सब लगे अजाने मैंने कभी न चाहा तुमको पलकों में ही सीमित कर लूं पर अनजाने ही अंतर में कोई रूप निखर आता है, मन का दर्द उभर आता है। कुछ कहते हैं इन गीतों में कोई शाश्वत सार नहीं है दुख का ही सरगम है इनमें सुख की मधु मनुहार नहीं है कण-कण में पीड़ा मुस्काती अंबर की पलकें भीगी हैं धरती रोए पर मैं गाऊं मुझको यह स्वीकार नहीं है मैंने कभी न चाहा जग को इन गीतों से विह्वल कर दूं पर अनजाने विकल स्वरों में दर्द स्वयं मुझको गाता है, मन का दर्द उभर आता है। 254 मैंने कभी न चाहा जग को दुख का साझीदार बनाऊं पर अनजाने ही गीतों में मन का दर्द उभर आता है। यह भी एक अहंकार है कि मैं किसी को अपने दुख में साझीदार न बनाऊं। यह भी अस्मिता है। अहंकारी आदमी अपने दुख को प्रगट नहीं करता है। इसे तुमने देखा, स्त्री और पुरुषों में एक फर्क । स्त्रियां अपने दुख को सरलता
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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