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________________ तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है चला जाएगा। पति वापस मिलेगा, यह मैं भी नहीं कहता। पति तो तू रो, तो नहीं मिलने वाला; न रो, तो नहीं मिलने वाला; हंस, तो नहीं मिलने वाला। कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। पति तो गया सो गया। मगर यह हिस्टीरिया, यह जो इतना तूने तनाव इकट्ठा कर लिया है, जिसे अब झेलना मुश्किल हो रहा है, तेरे मस्तिष्क के तंतु झेल नहीं पा रहे, मूच्छित हो जाते हैं, यह चला जाएगा। तीन दिन तक वह हृदयपूर्वक रोयी । सारी बुद्धिमत्ता छोड़कर रोयी । मूरख बनकर रोयी । और तीन दिन के बाद सारी बीमारी चली गयी। तीन साल, चार साल इस बात को घटे, फिर एक बार भी मूर्च्छा नहीं आयी, न हिस्टीरिया का कोई फिट आया। सीधी-सीधी बात है, अगर घाव भर सके तो बहुत अच्छा, अगर न भर सके तो फिर मवाद को भीतर रखना ठीक नहीं, बाहर निकाल देना ठीक है। और फिर तुम छिपाओ कितना ही, छिपा न पाओगे, कहीं न कहीं से निकलेगा; हिस्टीरिया में निकलेगा, सपने में निकलेगा, क्रोध में निकलेगा, कहीं न कहीं से निकलेगा । आदमी गाए न गाए दर्द कैसे चुप रहेगा आंख से जो अश्रु छलका वेदना का गीत होगा मौन हाहाकार उर का प्राण का संगीत होगा रुद्ध स्वर चाहे न चाहे प्राण कैसे चुप रहेगा स्वर न जगते हैं सुखों में पीर ही कविता जगाती कसक कोई गीत बनती सांस घायल गीत गाती साज चाहे रूठ जाए कंठ कैसे चुप रहेगा अधर सी दो लाख चाहे पर नयन वाचाल होंगे अधर सी दो लाख चाहे पर नयन वाचाल होंगे मौन ही भाषा प्रणय की शब्द सब कंगाल होंगे रूप कुछ बोले न बोले मौन कैसे चुप रहेगा आदमी गाएं न गाए दर्द कैसे चुप रहेगा है, उसे कर दो। उसे छिपाए मत रखो। उसे दबाए मत रखो। उसे आ जाने दो, किसी भी रूप में आ जाने दो, चाहे गीत बनकर फूटे, चाहे आंसू बनकर फैले, चाहे हाहाकार उठे, उसे आ जाने दो, उसे निकल जाने दो। मगर मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह परमविधि है । इससे सिर्फ तुम सामान्य रूप से स्वस्थ रहोगे। परमविधि तो है, समझो क्यों दुख है ! और तुम परमविधि का भी उपयोग कर सकते हो और दुख को व्यक्त भी कर सकते हो। दोनों साथ-साथ चल सकते हैं, दोनों में तालमेल है। अगर तुमने दुख को छिपाया तो तुम परमविधि का उपयोग भी न कर सकोगे, क्योंकि जो छिपाया है, उसको तुम देखने में भी डरोगे। क्योंकि कहीं देखने में ही उभर न आए, निकल न आए। तुम उस बात को ही हटाते 253
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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