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________________ तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है जाती है। दूसरे का बेटा कुछ कह दे तो तुम्हें कोई चोट नहीं लगती, क्या लेना-देना है! तुमने उससे कभी सोचा ही नहीं था कि कुछ बेहतर मिलने वाला है। तो तुम्हारी अपेक्षा में चोट है। भीतर तुम्हारे है कारण। दुख बाहर से नहीं आता, दुख के तुम निर्माता हो। तुम पैडल चलाते हो, तो चाक चलता है। तुम गति देते हो तो गति आती है। एक बात, दूसरे पर टालना बंद करो; और कारण में उतरो। सदा कारण तुम अपने में पाओगे। बुद्ध ने यही तो चार आर्यसत्य कहे-दुख है, दुख का कारण है, दुख से मुक्त होने की विधियां हैं और दुख-मुक्ति की दशा है। ये चार आर्यसत्य हैं। ये बड़े से बड़े सत्य हैं। __दुख है और दुख का कारण है। और कारण बाहर नहीं है, क्योंकि बाहर होता तब तो तुम्हारे वश के बाहर हो जाता। अगर दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं, तो जब तक दूसरे तय न करें कि तुम्हें दुखी न करें, तब तक तुम कभी सुखी न हो सकोगे। फिर तो निर्वाण भी बंधन हो गया। फिर तो मेरा मोक्ष भी तुम पर निर्भर है। फिर तो कोई स्वतंत्रता न रही। फिर तो आदमी की सारी महिमा गिर गयी। नहीं, अगर मैं चाहूं सुखी होना, तो मुझे कोई दुखी नहीं कर सकता। क्योंकि मैं अपने भीतर से दुख के सारे कारण अलग कर सकता हूं। अपमान से दुख होता है, मैं सम्मान की आकांक्षा छोड़ सकता हूं, फिर कैसे अपमान से दुख होगा? धन छिन जाता है तो दुख होता है, मैं धन का त्याग कर सकता हूं, तो फिर कैसे दुख होगा! अपना किसी को मानते हैं तो दुख होता है, तो मैं सभी को अपना मानना छोड़ दे सकता हूं, असंग हो जाता हूं, फिर कैसे दुख होगा? तुमने खयाल किया, एक रास्ते से तुम गुजर रहे हो और एक वृक्ष पर से एक शाखा टूटकर तुम्हारे सिर पर गिर गयी और चोट मार दी, तो तुम उस शाखा को तो गाली नहीं देते। तुम यह तो नहीं कहते कि यह मेरी दुश्मन है। पीड़ा तो होगी, क्योंकि चोट लगी, लेकिन दुख नहीं होता। लेकिन समझो कि इसी शाखा का किसी आदमी ने उपयोग किया होता और आकर तुम्हारे सिर पर मार दी होती, तो पीड़ा भी होती और दुख भी होता। एक झेन फकीर एक रास्ते से गुजर रहा था, एक वृक्ष से एक शाखा गिर गयी, उसको चोट लग गयी। उसने खड़े होकर सारी बात देखी, वह चुपचाप आगे चला गया, उसने कुछ भी न कहा। एक आदमी यह सब देख रहा था। उसने उस शाखा को काटकर एक डंडा बना लिया और दूसरे दिन वह फकीर जब निकल रहा था, फिर वह गया और उसने फकीर के सिर पर डंडा मार दिया। फकीर फिर खड़ा होकर देखा, थोड़ी देर कुछ सोचा, फिर अपने रास्ते पर जाने लगा। उस आदमी ने कहा कि रुको भई। अब तुमसे पूछना पड़ेगा। कल तुम चले गए थे, वह तो मेरी समझ में आ गया कि अब वृक्ष से ऊपर से शाखा गिरी, संयोग की बात है, मगर आज तो 251
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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