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तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है बुद्ध ने कहा, मैं बहुत बार लौटकर देखता हूं, लेकिन लपटों के सिवाय मुझे वहां कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता, मेरा भवन जल रहा है। उस बूढ़े ने कहा, मुझे तो कहीं कोई लपटें नहीं दिखायी पड़ रही हैं।
बुद्ध ने कहा इस आदमी को कि अगर तुझे लपटें दिखायी पड़ जाएं, तो फिर तू रुकेगा नहीं, फिर स्थगित न करेगा। स्थगित करने की तो तभी तक संभावना है जब तक लपटें दिखायी नहीं पड़ी।
तुम्हें भी जिस दिन दिखायी पड़ जाएगा कि जीवन वस्तुतः दुख है, उस दिन एक क्षण रुक न सकोगे। और बुद्ध अतिशयोक्ति नहीं करते हैं। बुद्धत्व में कहां अतिशयोक्ति! हमें अतिशयोक्ति लग सकती है, क्योंकि हमें लगता है कि इतने तक बात ठीक है कि जीवन में दुख हैं, चलो यह भी कहो कि बहुत हैं, मगर दुख ही दुख हैं! यह हमें बात घबड़ाती है, यह हम स्वीकार नहीं करना चाहते; कहीं तो सुख होगा, कुछ तो सुख होगा! ___हां, सुख है, आशा में। घटना में कभी भी नहीं। भविष्य में, वर्तमान में कभी भी नहीं। सुख है, सपने में। और उसी सपने में लिपटे हम इस दुख को झेल लेते हैं, इस दुख की चोट नहीं पड़ पाती।
सपना तोड़ दें हम, तो दुख की चोट हमें जगा देगी। दुख की चोट ही मनुष्य को बुद्धत्व की यात्रा पर ले जाती है।
चौथा प्रश्नः
दुख है। क्या उसे छिपाएं या प्रगट करें?
न तो छिपाने से कुछ होगा बहुत, न प्रगट करने से कुछ होगा बहुत। दुख को -समझें। छिपाने और प्रगट करने से क्या फर्क पड़ता है ? समझें, जागें, देखें, दुख में आंख गड़ाकर देखें, दुख पर ध्यान करें। दुख है तो दुख क्यों है? दुख का मूल कहां है ? दुख का कारण क्या है ? दुख है, तो तुम किसी तरह उस दुख के मूल को सींच रहे हो। दुख है, तो तुम किसी तरह सहारा दे रहे हो दुख को होने के लिए। दुख का विश्लेषण करें। जागकर समझें। और जैसे-जैसे दिखायी पड़ने लगेगा किस-किस तरह मैं अपने दुख को खुद सम्हाल रहा हूं, वैसे-वैसे तुम्हारे हाथ दुख
को सम्हालने से हटने लगेंगे। जिस दिन तुम अपने दुख को सम्हालना बंद कर दोगे, दुख का घड़ा अपने से गिरता है और फूट जाता है।
दुख है, क्योंकि तुम दुख को बना रहे हो। दुख ऐसे ही है जैसे एक आदमी साइकिल चलाता है। वह जब तक पैडल मारता है, तभी तक साइकिल चलती है,
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