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एस धम्मो सनंतनो
मन भरता ही नहीं। मन का भरना स्वभाव नहीं है।
जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ेगा, उस दिन तुम ऐसा न कहोगे कि बहुत दुख
है, उस दिन तुम ऐसा कहोगे - जीवन दुख है ।
ओ, हर सुबह जगाने वाले,
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ओ हर शाम सुलाने वाले, इतना दुख रचना था जग में तो फिर मुझे नैन मत देता ।
जिस दरवाजे गया, मिले बैठे अभाव कुछ बने भिखारी
पतझर के घर गिरवी थी मन जो भी मोह गयी फुलवारी,
कोई था बदहाल धूप में
कोई था गमगीन छांव में महलों से कुटियों तक दुख की
थी हर सुख से रिश्तेदारी, यूं चलती थी हाट कि बिकते फूल, दाम पाते थे माली दीपों से ज्यादा अमीर थी उंगली दीप बुझाने वाली, और यहीं तक नहीं, आड़ लेकर सोने के सिंहासन की पूनम को बदचलन बताती थी मावस की रजनी काली, क्या अजीब थी प्यास कि अपनी उमर पी रहा था हर प्याला
ने की कोशिश में मरता जाता था हर जीने वाला, कहने को सब थे संबंधी लेकिन थे आंधी के पत्ते जब तक हों परिचित आपस में
मुरझा जाती थी हर माला, ओ, हर चित्र बनाने वाले,
ओ, हर रास रचाने वाले, झूठी थीं तस्वीरें सब तो