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तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है
किंतु राह का पता नहीं है मंसूबे तो हिमगिरि जैसे पर कणभर भी तथा नहीं है कैसे मंजिल पाए कोई सीमांतों तक जाए कोई राशि - राशि किरणें बिखरी पर दूर-दूर तक सुबह नहीं है धुरीहीन सब घूम रहे हैं केवल चलते ही रहना है काल - सरित की प्रखर धार में पराधीन परवश बहना है कैसे पांव टिकाए कोई उद्धत जलधि झुकाए कोई लहरों के अंबार लगे हैं पर तिरने की सतह नहीं है जीवन के क्षणभंगुर सपने सजने के पहले ही टूटे
जो भी चले सहारा देने वे मनमोहक आंचल छूटे कैसे मन समझाए कोई सांसों को सुलझाए कोई
यहां मौत के लाख बहाने पर जीने की वजह नहीं है
यों तो सारा शहर पड़ा है पर रहने की जगह नहीं है
ठीक से देखोगे, आशा को हटाकर देखोगे, तो यहां रात ही रात है । दूर-दूर तक सुबह नहीं है। ठीक से देखोगे तो पाओगे, यहां डूबने के सिवाय कोई उपाय नहीं है, तिरने को कोई जगह नहीं है ।
यहां मौत के लाख बहाने
पर जीने की वजह नहीं है।
हम डरते हैं, ऐसा देखने से भी हमारा प्राण कंपने लगता है, पैर के नीचे की जमीन खिसकने लगती है । हम भयभीत होते हैं कि अगर ऐसा दिखायी पड़ गया, तब तो हम ढेर हो जाएंगे वहीं । फिर तो चलेंगे कैसे, उठेंगे कैसे ? आशा का सूत्र टूट जाएगा तो सहारा टूट जाएगा। यह तो अंधे के हाथ की लकड़ी है यह आशा ।
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