________________
तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है
आ। बुद्ध ने उसे एक बोध का मौका दिया। एक संबोधि का अवसर जुटा दिया। पूछ-पूछ, घर-घर जा-जाकर उसे समझ में आने लगा कि मौत तो सुनिश्चित है। तो फिर मेरे ही घर घटी है, ऐसा नहीं है; कुछ मुझ पर ही कोई बड़ी विपदा आ गयी, ऐसा नहीं; यह विपदा सभी पर आती। और पूछते-पूछते एक बात भी उसे साफ हो गयी कि बेंटा तो मर ही गया, मैं भी मरूंगी। तो अब बुद्ध से बेटे को जिलाने के लिए कहना व्यर्थ है, अब तो बुद्ध से यही पूछ लेना चाहिए कि कुछ मुझे ऐसा रास्ता बताओ कि मरकर भी मैं न मरूं।
यही संन्यास है।
लेकिन जीसस के साथ ज्यादती मैं न करना चाहूंगा, उनसे मेरा लगाव है। इसलिए जीसस की बात को खयाल में रखना, वे जिन लोगों के बीच काम कर रहे थे, वे छोटे ढंग की बात ही समझ सकते थे। उनके पास धर्म की कोई ऊंचाइयों का अनुभव नहीं था। हवा नहीं थी, वातावरण नहीं था। संस्कृति नहीं थी वैसी। बुद्ध भी वहां होते तो उन्हें वही करना पड़ता। और जीसस अगर भारत में पैदा होते तो उन्होंने वही कहा होता जो बुद्ध ने कहा है, कोई फर्क न पड़ता। क्योंकि दोनों की चैतन्य दशा एक सी है। लेकिन परिस्थिति भिन्न-भिन्न है।
तीसरा प्रश्न:
जीवन में दुख है, बहुत दुख है। यह तो हमें कभी-कभी दिखता है, लेकिन यह हमें कभी नहीं दिखता कि जीवन ही दुख है। कहीं बुद्धपुरुष कुछ अतिशयोक्ति तो नहीं करते हैं?
अति श यो क्ति तो मूर्छा में ही हो सकती है। अतिशयोक्ति तो तभी हो
सकती है जब तक मन अति करने में समर्थ है। जो मन के पार हो गया, वहां अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। वहां तो जैसा है, जो है, वैसा ही कहा जाता है। तो यह सोचने के बजाय कि बुद्धपुरुष अतिशयोक्ति तो नहीं करते, यही सोचना कि हमारे सोचने-समझने में कहीं भ्रांति होगी।
ठीक पूछा है, 'जीवन में दुख है और कभी-कभी यह भी लगता है कि बहत दुख है, मगर ऐसा कभी नहीं लगता कि जीवन ही दुख है।'
यह बात सच है। ऐसा ही लग जाए तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घट जाए। उसी लगने से तो अंगारा पड़ता है, पहली आग लगती। जीवन में दुख है, बहुत दुख है, लेकिन एक आशा बनी रहती है कि आज है, कल सब ठीक हो जाएगा। अभी है, सदा थोड़े ही रहेगा। थोड़ी देर और है, गुजार लो, अच्छी घड़ी आती ही होगी। कभी
241