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एस धम्मो सनंतनो
ही समझ में नहीं आती। यह कैसा धर्म हुआ कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो लिखा ही नहीं है! झूठ मत बोलो लिखा ही नहीं है! दस आज्ञाएं मोजिज की, उनका तो कहीं उल्लेख नहीं है-पर-स्त्रीगमन मत करो। जब पश्चिम में पहली दफे अनुवाद हुआ तो यह विचार उठना स्वाभाविक था कि इनको धर्मग्रंथ कहें! क्योंकि जो उनकी धर्मग्रंथ की धारणा थी, उसमें तो नैतिक नियम होने चाहिए-क्या करो, क्या न करो। - मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि आप हमें ठीक-ठीक बता क्यों नहीं देते कि क्या करें और क्या न करें?
उन्हें पता ही नहीं है कि धर्म का जो शिखर है, वहां करने और न करने की बात नहीं है, वहां होने की बात है। क्या हो जाएं? करने की बात ही छोटी दुनिया की बात है, बाजार की बात है। चोरी न करो, यह तो उनसे कहना चाहिए जो चोर हों। जों लोग बुद्ध के पास आकर बैठे थे, वे तो धन इत्यादि की दुनिया छोड़कर आकर बैठे थे। वे तो खुद ही समझकर आ गए थे कि वह सब बेकार है। चोरी की तो बात दूसरी, अपना धन छोड़कर आ गए थे, दूसरे का चुराने का तो सवाल क्या था! अब इनसे अगर बुद्ध कहें समझा-समझाकर कि चोरी मत करो, तो ये भी सिर पीटेंगे कि आप किससे कह रहे हैं! क्या कह रहे हैं आप! हम अपना देकर आ गए, अब दूसरे का चुराएंगे! यह बात ही फिजूल है। धन की बात समाप्त हो गयी, वह अध्याय पूरा हुआ।
ये ध्यान की दुनिया में प्रवेश कर गए हैं। इनसे बुद्ध कुछ और ही बात कहते हैं। बुद्ध कहते हैं, विचार से कैसे जागो! विचार के पार कैसे हो जाओ! बाइबिल
और कुरान कहते हैं, सदविचार कैसे करो; बुद्ध कहते हैं, विचार के पार कैसे हो जाओ। सदविचार के भी पार होना है। बाइबिल और कुरान कहते हैं, पुण्य कैसे करो; और बुद्ध कहते हैं, पुण्य भी बंधन है, इसके पार होना है। __ निश्चित ही बड़ी अलग तल पर बातें हो रही हैं। सीढ़ियां बड़ी भिन्न हैं। उपनिषद तो सिर्फ ब्रह्म की चर्चा करते हैं, और कोई बात ही नहीं करते। जिनसे ये बातें कही गयी होंगी-बुद्ध तो फिर भी हजारों लोगों से बोल रहे थे, उसमें सब तरह के लोग रहे होंगे, समझदार, नासमझ। उपनिषद तो बड़ी छोटी-छोटी गोष्ठियां थीं, दस-पच्चीस-पचास शिष्य थे। और शिष्य भी ऐसे-वैसे नहीं, कोई दस साल से गुरु के पास था, कोई पंद्रह साल से गुरु के पास था।
उपनिषद शब्द का अर्थ होता है, गुरु के पास बैठना। उप-निषद, उसके पास बैठना। जो उपासना का अर्थ होता है, वही उपनिषद का अर्थ होता है-उप-आसन। गुरु के पास बैठे थे, गुरु में रमते थे, गुरु की तरंगों में डोलते थे, गुरु की दशा का स्वाद लेते थे, रस लेते थे, गुरु का पान करते थे, गुरु को पीते थे—ऐसे वर्षों जिनको बीत गए थे गुरु के पास बैठे-बैठे, जो गुरु का मौन भी समझते थे। ऐसी घड़ी में गुरु
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