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जितनी कामना, उतनी मृत्यु
चमक उठेगी ठठकी नंगी भूरी डालें अभी-अभी थिरकेगी पछिया बयार झरने लग जाएंगे नीम के पीले पत्ते अभी-अभी खिलखिलाकर हंस पड़ेगा कचनार गुदगुदा उठेगा उसकी अगवानी में अमलतास की टहनियों का पोर-पोर अभी-अभी करवटें लेंगे बूंदों के सपने फूलों के अंदर, फलियों के अंदर अभी-अभी कोहरा चीरकर चमकेगा सूरज
चमक उठेगी ठठकी नंगी भूरी डालें अभी-अभी कुछ होगा। जल्दी कुछ होगा। थोड़ी देर और टिके रहो, थोड़ी देर और लड़े जाओ, कौन जाने कल, कल ही वह नियति का दिन हो जब तुम पर सौभाग्य की वर्षा हो, छप्पर टूटे! कौन जाने, कल तो और रुक लो, एक दिन तो
और देख लो। अब तक हारे, सच है, लेकिन सदा थोड़े हारते रहोगे। ऐसा मन समझाता। ऐसा मन आशा की डोर में लटकाए रखता और आदमी सरकता रहता। अगर जीवन से जागना है, तो आशा से जागना पड़ता है।
बुद्ध ने बड़ा जोर दिया है अनाशा पर। बुद्ध आशीष देते थे कि भिक्षु, तेरी आशा मर जाए। मेरा आशीष। आशा मर जाए! कि तू बिलकुल ही निराश हो जाए, ऐसा मेरा आशीष है। तुम तो घबड़ाओगे, तुम कहोगे, यह तो बात बड़ी बुरी हो गयी–निराश हो जाओ! ___ निराश का अर्थ होता है आस-रहित हो जाओ। कोई आशा न रहे। यह कोई दुखद अवस्था नहीं है निराशा, यह तो केवल जागरण की अवस्था है। अब कोई आशा न रही, अब भविष्य न रहा, अब कल की कोई बात न रही। जब कल की कोई बात नहीं तो तुम्हारी ऊर्जा भविष्य में नहीं दौड़ती। भविष्य तो मरुस्थल की तरह है, उसी में तुम्हारी ऊर्जा खो जाती है, नदी खो जाती है मरुस्थल में। जब भविष्य नहीं बचता, कोई आशा नहीं बचती, तो तुम्हारी ऊर्जा इकट्ठी होती है, तुम्हारी ऊर्जा एक सरोवर बन जाती है। उसी सरोवर में प्रतिष्ठा है-आत्मप्रतिष्ठा, स्वबोध। और वही सरोवर एक दिन निर्वाण सिद्ध होता है।
दूसरा सूत्र, उसकी कथा। वह भी पहले सूत्र के साथ जुड़ी कथा है।
एक भिक्षु थे, तिष्य। वर्षा-वास के पश्चात किसी ने उन्हें एक बहुत मोटे सूत वाला चादर भेंट किया।
बहुत भिक्षु वर्षा के दिनों में रुक जाते थे, तीन-चार महीने, और वर्षा-वास के बाद जब वे यात्रा पर पुनः निकलते तो लोग उन्हें भेंट देते। भेंट भी क्या? थोड़ी सी
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