SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो तो उसी की हो सकती है तो जीवन से सारे संबंध तोड़कर गया हो। जिसने पीछे लौटकर भी न देखा हो । जो पूरी विदा ले लिया हो संसार से । इस धारणा को बुद्ध कहते हैं द्वीप बनना । सो करोहि दीपमत्तनो खिप्पम वायम पंडितो भव । और बुद्ध कहते हैं, ऐसा जो द्वीप बन गया हो, ऐसा ही व्यक्ति पंडित है। पंडित का अर्थ तुम ऐसा मत जानना जैसा पंडित का अब अर्थ हो गया है। पंडित मौलिक अर्थ होता है, प्रज्ञा को उपलब्ध, जिसके भीतर की ज्योति जग गयी। अब तो पंडित का अर्थ होता है, जिसके पास शास्त्र का कूड़ा-करकट काफी है। जिसके पास सूचनाएं बहुत हैं। जिसके भीतर की ज्योति तो बिलकुल नहीं जली है, लेकिन जिसने बाहर से धुआं काफी इकट्ठा कर लिया है। और तुमने कहावत तो सुनी होगी न - जहां-जहां धुआं वहां-वहां आग। तो पंडित का अर्थ है आज, ऐसा आदमी जिसने खूब धुआं इकट्ठा कर लिया है चारों तरफ। और स्वभावतः, बाहर से जो लोग देखते हैं वे सोचते हैं- जहां-जहां धुआं वहां-वहां आग—जब इतना धुआं है तो आग भी होगी। लेकिन तुम ऐसा इंतजाम कर सकते हो, यह तर्क का पुराना नियम काम नहीं देगा, तुम तो धुएं की टंकी रख सकते हो अपनी बनाकर और धुआं निकालते रहो घर, पूरे मुहल्ले को धोखा देते रहो कि आग जल रही है और आग बिलकुल न हो, सिर्फ धुएं की टंकी ! उधार धुआं लाया जा सकता है। 1 पंडित, बुद्ध कहते थे उस आदमी को, जिसकी भीतर की ज्योति जग गयी । और सच तो यह है कि जब वह भीतर की ज्योति जगती है तो धुआं होता ही नहीं। तुमने देखा, आग के जलने से धुआं पैदा नहीं होता, धुआं पैदा होने का कारण दूसरा है । लकड़ी गीली होती है, इसलिए । जितनी लकड़ी सूखी होती है, उतना ही कम धुआं पैदा होता है। लकड़ी अगर पूरी-पूरी सूखी हो तो धुआं पैदा नहीं होता । तो धुआं आग से पैदा नहीं होता, धुआं तो लकड़ी में छिपे पानी से पैदा होता है। लकड़ी गीली होती है तो धुआं हो जाता है। जिसके भीतर की आग सच में जली, और जिसने अपने को ध्यान में सुखाया था, और जिसके भीतर की वासना का सारा गीलापन, वासना की सारी आर्द्रता, सारा पानी सूख गया था, जिसके भीतर कोई वासना की दौड़ न रही थी, जो काष्ठवत हो गया था — इसलिए पुराना एक शब्द है, काष्ठ समाधि । ऐसा हो जाता है व्यक्ति, जैसे सूखी लकड़ी । काष्ठवत । और तब एक आग जलती है। उस आग में फिर कोई धुआं नहीं होता। वह आग अपनी होती है, उधार नहीं होती है, किसी और की नहीं होती है। और वह आग बिना 204
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy