________________
जितनी कामना, उतनी मृत्यु
और लंबा जीवन मिले! इतने लंबे जीवन से क्या पाया? बूढ़ा काफी बूढ़ा था, सौ वर्ष का होगा। इतने लंबे जीवन से क्या पाया? अब मूढ़ता छोड़। सौ वर्ष में नहीं मिला तो दो-चार वर्ष और जी लेगा तो क्या मिलेगा? सौ वर्ष में गंवाया ही, तो दो-चार वर्ष में और थोड़ा गंवा लेगा, और क्या होगा?
बुद्ध ने कहा, अब जीवन की नहीं, अपनी खोज कर। अब अपनी प्रतिष्ठा कर। अपना केंद्र खोज। उसे खोज जो अमृत है। मौत से जूझने का वही उपाय है। मौत से जूझने का उपाय जीवन नहीं है, क्योंकि जीवन को तो मौत जीत ही लेती है, सदा जीत लेती है।
देखा, चिकित्साशास्त्र ने कितना विकास कर लिया है, आदमी को कितनी औषधियां उपलब्ध हो गयी हैं, लेकिन मृत्यु की दर तो सौ प्रतिशत की सौ प्रतिशत है। जितने आदमी पैदा होते हैं उतने आदमी मरते हैं। मृत्यु की दर सौ प्रतिशत ही रहेगी। मृत्यु की दर कभी कम नहीं होने वाली। चाहे दवाएं हों, चाहे आयोजन हों, आदमी थोड़ा लंबा जी लेगा, लेकिन मौत तो आनी ही है। ऐसा कभी भी न हुआ कि मौत निन्यानबे प्रतिशत हो, कि सौ बच्चे पैदा हों और निन्यानबे आदमी मरें और एक बच जाए। मृत्यु-दर सुनिश्चित है।
जीवन में तूने पाया क्या, बुद्ध उससे पूछने लगे। यह बात बड़ी कठोर है। मरते आदमी से ऐसी बात पूछनी नहीं चाहिए। मरते आदमी को तो हम सांत्वना देते हैं। मरते आदमी को तो हम लोरी सुनाते हैं कि वह सो जाए शांति से। मरते आदमी को हम ऐसे कठोर शब्द नहीं कहते। लेकिन बुद्ध ने बड़ा कठोर शब्द कहा। उससे कहा, तेरे पास कोई पुण्य-पाथेय नहीं, अपनी प्रतिष्ठा कर, अपना केंद्र खोज, स्व में रम, प्रज्ञावान हो, अब और मूर्ख मत बन, स्वप्नों से जाग। जीवन मात्र एक स्वप्न है।
संत सांत्वना नहीं देते। और जो सांत्वना दे, वह संत नहीं है, इसे समझ लेना। हालांकि तुम जिन्हें संत कहते हो, वे सांत्वना देने का ही काम करते हैं। और तुम उन्हें पूजते भी इसीलिए हो कि वे सांत्वना देते हैं। तुम्हारे सुख-दुख में थपकी देते हैं। तुम्हें भुलाए रखते हैं, भरमाए रखते हैं। तुमसे कहते चले जाते हैं, सब ठीक है, घबड़ाओ न, सब ठीक हो जाएगा।
संत सांत्वना देते ही नहीं, संत तो सत्य देते हैं। और सत्य सदा कठोर है। सत्य सदा कठोर है, जब मैं ऐसा कहता हूं तो इसका अर्थ ठीक से समझ लेना। सत्य अपने आप में कठोर नहीं है, लेकिन तुम इतना असत्य में जीए हो, इसलिए सत्य कठोर मालूम होता है। तुमने अपना सारा जीवन असत्य कर लिया है, इसलिए सत्य की चोट गहरी पड़ती है। भिद जाती है प्राणों तक। सत्य को तुम सह नहीं पाते, क्योंकि तुमने असत्य को ही सहने का अभ्यास किया है। __ सत्य तो होता है नग्न, उस पर कोई वस्त्र नहीं होते। और न सत्य कोई मुखौटे ओढ़ता है। और न सत्य तुम्हारे अनुकूल होने की कोई चेष्टा करता है। तुम्हारे
197