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धर्म अनुभव है
जाएगा। पूर्ण कृत्य निर्णायक होता है। या तो दिखेगा यह मेरा मार्ग है, फिर तो चल पड़े, फिर तो लौटने की कोई जरूरत न रही। या दिख जाएगा कि यह मेरा मार्ग नहीं है, तो भी झंझट मिट गयी, दूसरा फिर तुम्हारा मार्ग है । फिर कोई अड़चन न रही। हर हालत में निर्णय आ जाएगा।
चौथा प्रश्न :
मनुष्य आनंद कब मनाए ? उत्सव कब उचित है ?
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हद्द की कंजूसी है ! आनंद भी प्रतीक्षा करोगे कि कब मनाएं! दुख के संबंध में कंजूसी करो तो ठीक है कि आदमी दुखी कब हो? ऐसा पूछो तो ठीक है। आनंद के संबंध में पूछते हो! आनंद तो स्वभाव है। चौबीस घंटे आदमी सुखी हो । प्रतिपल आदमी आनंदित हो । उत्सव तो जीवन का ढंग है। उत्सव तो चल रहा है चारों तरफ। यह जो विराट है, उत्सवलीन है। तुम्हारी मर्जी, चाहो तो बाहर खड़े रहो, मत डूबो इस उत्सव में, चाहो तो डुबकी ले लो।
तुम पूछते हो, 'मनुष्य आनंद कब मनाए ?'
प्रश्न की अर्थवत्ता मैं समझा। अधिक लोगों का यह प्रश्न है । लोग दुखी होने में जरा भी कृपणता नहीं करते, न वक्त देखते, न बेवक्त देखते, समय-असमय कुछ नहीं देखते, ऋतु-बेऋतु कुछ नहीं देखते, दुखी होने के लिए तो चौबीस घंटे तत्पर हैं, मौका भर मिल जाए। कभी तो मौका भी नहीं मिलता तो भी हो जाते हैं। कभी तो कारण भी नहीं मिलता तो भी हो जाते हैं। लेकिन सुख के संबंध में बड़े कृपण हैं। लाख उपाय जुटाओ, तब मुश्किल से थोड़ा मुस्कुराते हैं । वह भी बड़े रुके रुके, जैसे कि बड़ी ज्यादती हो रही है उन पर । हंसना कठिन मालूम होता है, नाचना कठिन मालूम होता है, गीत गुनगुनाना कठिन मालूम होता है । हमने दुख के साथ बड़ी गांठ बांध ली है। दुख को हमने जीवन की चर्या बना ली है।
इसलिए तुम पूछते हो, 'मनुष्य आनंद कब मनाए ? उत्सव कब मनाए ? "
एक रूसी कथा मैंने सुनी है । किन्हीं सज्जन ने सड़क पर एक भिक्षुक को एक रूबल दे दिया। यह उस बीते सुनहरे जमाने की बात है जब एक रुपए की तरह एक रूबल से भी बहुत कुछ खरीदा जा सकता था। रूबल रूसी सिक्का है। थोड़ी देर बाद वे सज्जन जब उसी राह से लौट रहे थे तो देखा कि वही भिक्षुक एक होटल में बैठा हुआ तंदूरी चिकन पर हाथ साफ कर रहा है। उनसे न रहा गया और वे होटल में जाकर उसे डांटने लगे। उससे बोले कि तुम सड़कों पर भीख मांगते हो और तंदूरी चिकन खाते हो ? भिक्षुक भी गजब का आदमी था । बजाय झेंपने के, उलटे वह उस
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