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________________ एस धम्मो सनंतनो. का। तुम पूछने लगे, तो फिर आप बता दें कि फिर संन्यासी क्या करे? जब कर्म तो बचेगा कर्ताभाव के जाने के बाद भी, तो फिर कर्म कौन सा करे यह आप बता दें। मैं कह रहा था कि कर्ताभाव चला जाए, और साक्षीभाव जगे। जिसका साक्षीभाव जग गया, उसे कर्म नियत करने की जरूरत ही नहीं है। कर्म रहेगा, लेकिन अब साक्षीभाव से कर्म होगा, अब कर्ताभाव से कर्म नहीं होगा । और जिसके भीतर साक्षी का दीया जला है, उसे दिखायी पड़ेगा कि क्या करना उचित है। उसे कोई अंधी धारणाओं के अनुसार थोड़े ही चलना पड़ेगा। अंधा आदमी पूछता है, कहां है द्वार ? आंख वाला पूछता है? आंख वाले के पास आंख है, आंख में सब आ गए द्वार, सब आ गए मार्ग । आंख वाला उठता है और द्वार से निकल जाता है। न तो किसी से पूछता, सोचता भी नहीं कि द्वार कहां है, जब निकलना है चारों तरफ देखता है, जहां द्वार है निकल्प जाता है । अंधा आदमी कहेगा, पहले पूछो तो कि जाना किस दिशा से है, द्वार कहां है, कहीं दीवाल से न टकरा जाएं। साक्षीभाव! जहां कर्ताभाव गया, मैं कर्ता हूं ऐसा जहां भाव गिर गया, वहां मैं द्रष्टा हूं ऐसे भाव का जन्म होता है। जो ऊर्जा कर्ताभाव में बंधी है, वही ऊर्जा कर्ताभाव से मुक्त होकर साक्षी बन जाती है। मैं सिर्फ देखने वाला हूं। उस देखने में दर्शन है, दृष्टि है, आंख है । उस दृष्टि से फिर तुम्हारे जीवन के सारे कृत्य संचालित होने लगेंगे। फिर तुम्हें पूछने की जरूरत न रह जाएगी । लेकिन तुम कर्ताभाव गिराने में उतने उत्सुक नहीं हो । कर्ताभाव जब गिरेगा, तब भी कर्म तो बचेगा, तुम पूछते हो, तो फिर उस कर्म को हम कैसे करेंगे, वह आप बता दें | यह ऐसा ही है जैसे अंधे आदमी का इलाज कराने हम ले जाएं, और वह पूछे कि जब मेरी आंख ठीक हो जाएगी तो मैं किस-किस से पूछूंगा, कैसे पूछूंगा, कैसे टोलूंगा कि मेरा रास्ता कहां है? हम उससे कहेंगे, पागल, तू चुप रह, पहले आंख ठीक हो जाने दे, फिर ये बातें नहीं उठेंगी। ऐसा हुआ कि जीसस के जीवन में एक उल्लेख है। एक आदमी आया, लंगड़ा था, बैसाखियों के सहारे टेकते-टेकते जीसस के पास पहुंचा। उन्होंने उसे छुआ और वह सर्वांग सुंदर हो गया, सर्वांग स्वस्थ हो गया, उसका लंगड़ापन चला गया। उसने जीसस को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया, बैसाखियां बगल में दबायीं और जाने लगा। जीसस ने कहा, अरे पागल, बैसाखियां फेंक । अब ये बैसाखियां क्यों ले जा रहा है ? उसने कहा, ठीक याद दिलायी, क्योंकि मुझे तो यह बात ही भूल गयी थी कि बैसाखियों के बिना चला जा सकता है। पुरानी आदत ! अब लंगड़ा नहीं है, लेकिन बैसाखी के बिना तो कैसे जीएगाजन्मभर, जीवनभर बैसाखी के ही सहारे चला है, आदत हो गयी है । तुम्हारी भी आदत हो गयी है पूछने की। कोई न कोई बताने वाला चाहिए। तुम 162
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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