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________________ एस धम्मो सनंतनो थे। बड़ा नाम सुना था रेवत का कि ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, आपके बड़े शिष्य हैं। यह क्या बात हुई, हम बैठे रहे और वे चुपचाप बैठे रहे, कुछ बोले नहीं! यह तो बात कुछ जंची नहीं। फिर हम सारिपुत्र के पास गए। सारिपुत्र बोले, लेकिन इतना बोले कि सब हमारे सिर पर से बह गया। जरूरत से ज्यादा बोल गए। और ऐसी सूक्ष्म-सूक्ष्म बातें कहीं कि हमारी पकड़ में ही न आयीं। ऐसी हालत आ गयी कि बैठे-बैठे ऊब आने लगी, उबकाई आने लगी, झपकी लग गयी, कई बार तो सो भी गए। यह भी कोई बात हुई, भगवान! इतना बोलना चाहिए। इस तरह सूक्ष्मता की बातें कहनी चाहिए! हमारी समझ में जो पड़े, वह कहो और जितना समझ में पड़े, उतना कहो। तुमने इतना ज्यादा कह दिया कि जो थोड़ा-बहुत समझ में पड़ता, वह भी बह गया तुम्हारे पूर में। यह सारिपुत्र तो पूर की तरह मालूम होते हैं, बाढ़ आ गयी। एक चुपचाप बैठे रहे, उनसे एक बूंद न मिली! एक सज्जन थे कि ऐसे बरसे मूसलाधार कि कुछ हाथ न लगा! और फिर हम उन्हें सुनने के बाद आनंद स्थविर के पास गए। उन्होंने बहुत थोड़ा कहा। अत्यंत सूत्ररूप, जो कुछ पकड़ में आया नहीं। यह भी कुछ बात हुई, भगवान! अरे, कुछ फैलाकर कहो, समझाकर कहो, कुछ दृष्टांत से कहो, कुछ दोहराकर कहो कि हमारी समझ में पड़ जाए। सूत्ररूप दोहरा दिया! तो सूत्र तो बड़े कठिन हैं-बीजरूप, हमारी पकड़ में न आए। अब हम आपके पास आए हैं। हम तो उनके पास से क्रुद्ध होकर लौटे हैं। ___भगवान ने अतुल की बात सुनी, हंसे और बोले, अतुल, यह प्राचीन समय से होता आ रहा है। मौन रहने वाले की भी निंदा होती है, बहुभाषी की भी निंदा होती है, अल्पभाषी की भी निंदा होती है। संसार में निंदा नियम है। प्रशंसा तो लोग मजबूरी में करते हैं। असली रस तो निंदा में ही पाते हैं। प्रशंसा भी लोग निंदा के आयोजन में ही करते हैं। पृथ्वी, सूर्य और चंद्र तक की निंदा करते हैं। किसी की निंदा करने से नहीं चूकते। मेरी ही देखो कितनी निंदा चलती है, भगवान ने कहा। लेकिन मूढ़ क्या कहते हैं, यह विचारणीय नहीं है। और तब उन्होंने यह गाथा कही पोराणमेतं अतुल! नेतं अज्जनामिव । निन्दन्ति तुहीमासीनं निन्दन्ति बहुभाणिनं । मितभाणिनम्पि निन्दन्ति नत्थि लोके अनिन्दितो।। 'हे अतुल, यह पुरानी बात है, यह कोई आज की नहीं, कि लोग चुप बैठे की निंदा करते हैं, बहुत बोलने वाले की निंदा करते हैं, मितभाषी की भी निंदा करते हैं; लोक में अनिंदित कोई भी नहीं है।' 154
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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