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तुम तुम हो
सदा जागरमानानं...।
'और जो दिन-रात सीखते रहते हैं...।'
जिनका शिष्यत्व पूर्ण है, जो सीखने में चूकते ही नहीं, दिन हो कि रात, सुबह हो कि सांझ, अपना हो कि पराया, शत्रु हो कि मित्र, कोई घृणा करे कि प्रेम, कोई गाली दे कि सम्मान, जो सीखते ही रहते हैं, जो हर चीज को अपने लिए शिक्षण में बदल लेने की कला जानते; उसी का नाम तो शिष्य है। मैंने तुमसे कहा, गुरु वह जिसके सामने तुम्हें विवश, अपने बावजूद झुकना पड़े; और शिष्य वह जो हर स्थिति में सीख ले। ऐसी कोई स्थिति न हो जिसमें वह कहे, इसमें सीखने को कुछ भी नहीं है। ऐसी स्थिति होती ही नहीं। सभी स्थितियों में सीखा जा सकता है।
अहोरत्तानुसिक्खिनं।
- दिन हो कि रात, सफलता हो कि असफलता, जय हो कि पराजय, जन्म हो कि मृत्यु
अहोरत्तानुसिक्खिनं।
हर स्थिति में जो सीखता रहे, जागा हुआ रहे। 'निर्वाण ही जिसका एकमात्र उद्देश्य है।'
जो किसी भी तरह हो, शरीर और मन की सीमाओं से मुक्त होकर आत्मा के विशाल आकाश में लीन हो जाना चाहता है, जो अपनी बूंद को सागर में गिराने को उत्सुक है, ऐसा ही व्यक्ति अंधेरे के पार जाता है।
और आखिरी सूत्र-प्यारी घटना है। .
श्रावस्ती का अतुल नामक एक व्यक्ति पांच सौ और व्यक्तियों के साथ भगवान के संघ में धर्मश्रवण के लिए गया। वह क्रमशः स्थविर रेवत, स्थविर सारिपुत्र और आयुष्मान आनंद के पास जा फिर भगवान के पास पहुंचा।
ऐसी ही व्यवस्था थी। बुद्ध के जो बड़े शिष्य थे, पहले लोग उनको सुनें, समझें, कुछ थोड़ी पकड़ आ जाए, कुछ थोड़ा समझ आ जाए तो फिर भगवान को वे जाकर पूछ लें।
भगवान से उसने कहा, भंते, मैं इतनी प्रबल आशा से धर्मश्रवण के लिए आया था, लेकिन रेवत स्थविर कुछ बोले ही नहीं, चुपचाप बैठे रहे। यह कोई बात हुई! मैं अकेला भी नहीं, पांच सौ लोगों के साथ आया था। हम दूर से यात्रा करके आए
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