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________________ तुम तुम हो क्या घट रहा है, इसका भी पता नहीं चलता है। तुम अपने ही भीतर नहीं गए, तुम दूसरों के भीतर जाने की बात ही मत सोचो। ____ मगर यह होता है। जहां हम हैं, उससे ऊपर हम किसी को मान नहीं सकते। इससे अहंकार को बड़ी चोट लगती है। यह पूर्णा दासी है, यह कैसे मान सकती है कि इससे ऊपर भी कोई मनुष्य का रूप हो सकता है। आधी रात को लोग ध्यान भी करने के लिए जाग सकते हैं, यह तो बात ही उठती नहीं। ध्यान करने! ध्यान तो उसने कभी किया नहीं। यह ध्यान शब्द तो कोरा है, इसमें तो कुछ अर्थ नहीं। ___ यहां लोग आ जाते हैं, वे लोगों को यहां ध्यान करते देखते हैं संन्यासियों को, उन्हें भरोसा नहीं आता। वे सोचते हैं, ये सब पागल हो गए। स्वाभाविक। पागल ही हो गए होंगे, क्योंकि उन्होंने तो ऐसा कभी किया नहीं। एक बात पक्की है कि वे जानते हैं, ऐसा वे तभी करेंगे जब पागल हो जाएंगे, इसलिए वे सोचते हैं कि ये पागल हो गए हैं। इस निर्णय में वे अपने संबंध में सूचना दे रहे हैं। यह तो वे मान ही नहीं सकते कि लोग किसी आनंद में डूबकर रसलीन होकर नाच रहे हैं। वे तो यही मान सकते हैं कि किसी ने सम्मोहित कर लिया होगा, हिप्नोटाइज कर दिया होगा। बेचारे! उनको बड़ी दया आती है। __फिर वे यह भी नहीं मान सकते कि मनुष्य उनसे ऊपर जा सकता है, कोई भी मनुष्य उनके ऊपर जा सकता है। इसलिए जब भी उनको खबर मिलती है, कोई मनुष्य ऊपर गया, वे तत्क्षण उसकी निंदा में तत्पर हो जाते हैं। निंदा के द्वारा वे अपने अहंकार की सुरक्षा करते हैं। निंदा के द्वारा वे उस मनुष्य को नीचे ले आते हैं। अपने से जब तक नीचे न ले आएं, तब तक उन्हें चैन नहीं, बेचैनी रहती है। कोई उनसे आगे निकल गया! यह तो बर्दाश्त के बाहर है। वे ही श्रेष्ठतम हैं, दूसरे उनसे निकृष्ट ही हो सकते हैं, उनसे पीछे ही हो सकते हैं। तो यह दासी सोचने लगी, सब पाखंडी, सब ढोंगी। ये रात जागकर क्या कर रहे हैं? दूसरे दिन भगवान ने उसके द्वार पर भिक्षाटन के लिए आकर आवाज दी। तो वह बहुत हैरान हुई। रात ही तो उसने सोचा था और यह पाखंडियों का गुरु दरवाजे पर खड़ा है! इनकार करना भी चाहा, लेकिन इनकार न कर सकी। कभी ऐसे क्षण आते हैं जीवन में जब तुम्हारे अहंकार से निकली हुई आवाज किसी के व्यक्तित्व के प्रभाव में क्षीण पड़ जाती है, दब जाती है, टूट जाती है। चाहती तो यह यही थी कहना कि हट जाओ, कहीं और जाओ, कहीं और मांगो, मैं इस पाखंड में सम्मिलित नहीं होना चाहती। मैं क्यों दूं? मगर बुद्ध की मौजूदगी, उनका वह सौम्य रूप, उनका वह समत्व, उनका वह प्रसाद, उनके चारों तरफ बरसती हुई करुणा, वह अपने बावजूद देने को मजबूर हो गयी। उसने सोचा कि दे ही दो। चुपचाप विदा कर दो, कौन झंझट करे! कहीं-कहीं उसे लगने लगा कि शायद आदमी ठीक हो ही। 149
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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