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तुम तुम हो है। और हमारे भीतर झूठ पड़ा है, उसे सच से जीतना है।
ऐसा जो करने में सफल हो जाए, वह मनुष्य देवताओं के पास पहुंच जाता है। वह मनुष्य देवता हो जाता है। उस मनुष्य के भीतर भगवत्ता प्रगट होने लगती है।
दूसरी कथा
राजगृह के श्रेष्ठी की पूर्णा नामक एक दासी थी। एक रात वह धान कूटती हुई पसीने से भीगकर बाहर आकर खड़ी हो गयी। आधी रात, थकी-मांदी, अपने प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही थी। प्रेमी को आता न देख बड़ी दुखी भी होने लगी। थकी-मांदी भी थी और कामातुर भी। प्रेमी को आता न देख स्वाभाविक था कि उसके मन में दुख पैदा हो। दिनभर धान कूटती रही इसी आशा में कि रात प्रेमी आएगा। चिंता के कारण सो भी न सकती थी। दो-चार बार बिस्तर पर भी गयी, फिर लौट-लौट बाहर आ गयी कि कहीं ऐसा न हो कि मैं नींद में सो जाऊं और प्रेमी आए और द्वार पर दस्तक दे और मुझे सुनायी भी न पड़े। थकी-मांदी इतनी हूं कि अगर डूब गयी नींद में तो दस्तक सुनायी न पड़ेगी। तो बार-बार लौटकर बाहर आ जाती हैं।
तभी उसने देखा कि पास के आम्रकुंज में, जहां बुद्ध का निवास था, जहां बुद्ध ठहरे थे, जहां बुद्ध का विहार चल रहा था और उनके हजारों भिक्षु ठहरे हुए थे, उसने देखा; अनेक भिक्षु शांत बैठे हैं, अनेक भिक्षु खड़े हैं, अनेक भिक्षु चल-फिर रहे हैं। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने सोचा, इतनी रात गए ये भिक्षु यहां क्या कर रहे हैं? क्यों जाग रहे हैं? उसने सोचा, मैं तो धान कूटती हुई जागी हं, ये क्यों जाग रहे हैं? ये क्या कुट रहे हैं? और उसने सोचा, मैं तो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करती जागी हूं, ये किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं? फिर हंसी और अपने आप ही बोली, अरे, सब भ्रष्ट हैं, ढोंगी हैं, पाखंडी हैं। ये भी अपने प्रेमियों और प्रेयसियों की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। अन्यथा आधी रात को जागने का क्या प्रयोजन है?
दूसरे दिन सुबह भगवान उसके द्वार पर भिक्षाटन के लिए गए। वह तो बहुत चौंकी। भगवान को वह इनकार करना चाहकर भी इनकार न कर सकी। पाखंडियों का ही गुरु है, तो होना तो पाखंडी ही चाहिए। इनकार तो करना चाहती थी, लेकिन सामने खड़े हुए इस शांतमुद्रा व्यक्ति को इनकार कर भी न सकी। तो उसने भगवान को किसी तरह भोजन कराया। भोजनोपरांत भगवान ने उससे कहा, पूर्णे, क्यों तू मेरे भिक्षुओं की निंदा करती है? उसे तो भरोसा न आया, क्योंकि उसने यह बात किसी से कही न थी। वह बोली, भंते, निंदा! मैं तो नहीं करती, मैंने कब की निंदा? भगवान ने कहा, रात की सोच, रात तूने क्या सोचा था?
पूर्णा बहुत शर्मिंदा हुई और फिर उसने सारी बात कह सुनायी। शास्ता ने उससे कहा, पूर्णे, तू अपने दुख से नहीं सोयी थी, मेरे भिक्षु अपने आनंद के कारण जागते थे। तू विचारों-विकारों के कारण नहीं सोती थी, मेरे भिक्षु ध्यान कर रहे थे, निर्विचार
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